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________________ सप्तमोऽध्याय ५९९ क्योंकि शल्यों के होते हुये व्रतों के सद्भाव से व्रती नहीं हो सकता है। बात यह है कि शल्यों के होते सन्ते वस्तुतः वे व्रत ही नहीं हैं व्रताभास हैं तभी तो निश्शल्यत्व और व्रतीत्व का सामानाधिकरण्य बन रहा है । दूसरी बात यह है कि माया, निदान, मिथ्यादर्शन इन तीनों शल्यों से रहित हो रहे भी किसी असंयत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवाले जीव के व्रतों के नहीं होने पर व्रतीपन का अभाव है। अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन कषायों के उदय अनुसार मायाचार यद्यपि चौथे गुणस्थान में पाया जाता है, निदान भी पांचवें गुणस्थान तक सम्भवता है किन्तु यहां शल्यों में तीव्रमायाचार और प्रत्यक्त निदान अभिप्रेत हैं यों “निश्शल्यो व्रती” इस प्रकार विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध अनुसार कहने पर विशेषफल समझा दिया गया हो जाता है तिस प्रकार विवरण करने से जो निष्कर्ष निकला उस को वार्तिक द्वारा यों समझिये किः- . निःशल्योऽत्र व्रती ज्ञेयःशल्यानि त्रीणि तत्त्वतः। मिथ्यात्वादीनि सद्भावे, व्रताशयविपर्ययः ॥१॥ प्रकरण अनुसार यहाँ सूत्र में कहा गया जो निश्शल्य जीव है वह व्रतधारी व्रती समझ लिया जाय । तात्त्विकरूप से मिथ्यात्व आदिक शल्य तीन मानी गयी हैं। जीवों के उन शल्यों का व्यस्त या समस्तरूप से सद्भाव होने पर व्रतधारण के अभिप्रायों का विपर्यय हो जाता है। अर्थात् ब्रती होने के लिये निश्शल्यपन रंगभूमि है । निश्शल्यता होना ही कठिन है पुनः व्रतों का धारण सुलभ साध्य है । व्रतीशब्द का योगविभाग कर “निश्शल्यो व्रती व्रती" यों वाक्य बनाते हुये शल्यरहित होकर व्रतधारी को व्रती कहना अक्षुण्ण बन जाता है। स पुनर्वती सागार एवानगार एवेत्येकांताया कृतये सूत्रकारः प्राह; वह व्रती फिर गृहस्थ ही है अथवा गृहरहित साधु ही व्रती है इस प्रकार के एकान्तों का निराकरण करने के लिये सूत्रकार महाराज बहुत बढ़िया निर्णय कह रहे हैं। अगार्यनगारश्च ॥१९॥ वह व्रती आगारी, अनगार, यों दो भेदों में विभक्त है । भावरूप से पकड़ा गया घर जिसके विद्यमान है वह गृहस्थ अगारी नाम का व्रती है और जिस त्यागी मुनि के भावरूपेण घर नहीं है वह अनगार व्रती है । यहाँ भी मात्र गृहसहितपन और गृहरहितपन से अगारी और अनगार की लक्षण व्यवस्था नहीं है किन्तु भविष्य सूत्र अनुसार अणुव्रतों के धारण से अगारीपना निर्णीत समझा जाय और बिना कहे ही सामर्थ्य से महाव्रतों के धारण अनुसार अनगारपना व्यवस्थित हो रहा मान लिया जाय । प्रतिश्रयार्थितयांगनादगारं । अनियमप्रसंग इति चेन, भावागारस्य विवक्षितत्वात् तदस्यास्तीत्यगारी। व्रतीत्यभिसंबन्धः व्रतिकारणसाकल्याद्गृहस्थस्याव्रतित्वमिति चेन्न । नैगमसंग्रहव्यवहारव्यापारानगरवासवद्राजवद्वा । नैगमव्यापाराद्धि देशतो विरतः सर्वतो विरतिं प्रत्यभिमुखसंकल्पो व्रती व्यपदिश्यते नगरवासत्वराजत्वाभिमुखस्य नगरवासराजव्यपदेशवत् । प्रतिश्रय यानी ठहरने के लिये स्थान की लिप्सा को कर रहे जीव की अभिलाषा करके जो प्राप्त किया जाता है वह अगार है यों अगार शब्द की निरुक्ति कर घर अर्थ निकाला गया है। ऐसा घर ७६
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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