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श्लोक- वार्तिक
जिस के विद्यमान है वह अगारी है। जिसके घर नहीं वह अनगार मुनि है। श्रावकाचारों में गृहस्थ की पहली छह प्रतिमाओं में गृह का अर्थ स्त्री किया गया है शेष पांच प्रतिमाओं में गृह का अर्थ घर या घरसरीखा उपवन है। गृह का अर्थ गृहिणी करते हुये भी घर को छोड़ा नहीं गया है । अतः यहाँ सामान्यरूप से अगार का अर्थ घर लिया जाय । यहाँ शंका उठती है कि घर सहितपन या घर रहितपन से कोई गृहस्थ, ती या मुनित्रती का नियम नहीं है अतः उक्त सूत्र अनुसार कोई निव्रती या मुनित्रती का नियम नहीं है अतः उक्त सूत्र अनुसार कोई नियम नहीं हो सकने का प्रसंग आया । देखिये सूने घर या देवस्थान आदि में कुछ देर तक निवास कर रहे मुनि को गृह सहितपना प्राप्त हुआ । गृहस्थों के घर में भी आहार करते समय मुनि ठहरते हैं। पश्चात् भी कुछ धर्मोपदेश देते हुये ठहर जाते हैं । तथा जिसकी विषयतृष्णायें दूर नहीं हुई हैं ऐसा गृहस्थ भी किसी कारण से घर को छोड़कर वन में निवास करता है । आजीविका के वश हजारों मनुष्य घर छोड़ कर बाहर वनों में, खेतों में, पहाड़ों में पड़े हुये हैं एतावता वे अगार रहित हो रहे हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करना क्योंकि यहाँ हृदय में विचार लिये गये भावस्वरूप घर की विवक्षा की गयी है । अन्तरंग में चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होते सन्ते घर के सम्बन्ध से जो तृष्णा का नहीं हटना है वह भावागार है इस श्रावक के वह भावागार है इस कारण अगारी कहा जाता है। भले ही वह वन में, पहाड़ में, समुद्र में, आकाश, पाताल, में निवास करे तो भी वह अगारी
और महाराज चाहे धन धान्य जन पूर्ण घर में ही कुछ समय तक ठहरे रहें वे भावागार नहीं होने से अनगार ही हैं। यहां सूत्र में पूर्व सूत्र से व्रती का दोनों ओर से सम्बन्ध कर लेना चाहिये । अगारी व्रती और अनगारी व्रती यों दो व्रती हैं। यहां कोई आशंका उठाता है कि व्रती होने के कारणों की असंपूर्णता होने से गृहस्थ को व्रती नहीं कहना चाहिये । अर्थात् जब "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्ब्रतं" यों व्रतों का लक्षण माना है तो सकल व्रतों की पूर्णता नहीं होने से श्रावक को व्रती नहीं कहा जा सकता है । जैसे कि एक या दो हरी वनस्पति का त्याग कर देने से या दिन में चोरी का त्याग कर देने से कोई व्रती नहीं हो जाता है। पूरा लाख, पचास हजार रुपये होने से धनी कहा जा सकता है एक पैसा या एक रुपया के धन से कोई धनी नहीं हो जाता है । पूर्ण विद्यायें होने से विद्वान् कहना ठीक है। किसी एक विद्या में मात्र चञ्चप्रवेश हो जाने से विद्यावान नहीं । आचार्य कहते हैं कि यह नहीं कहना क्योंकि नैगम, संग्रह, और व्यवहार, इन नयों के व्यापार से असकलनती गृहस्थ को भी व्रती कह दिया गया है। जैसे कि पूरे नगर में नहीं ठहर कर एक डेरे या घर के कोने में ठहरता हुआ कोई मनुष्य केवल नगर के एक देश में निवास करता है फिर भी वह कलकत्ता निवासी, आगरा वासी, सहारनपुर वासी, कहा जाता है । इसी प्रकार व्रतों के एक देश में अधिष्ठित हो रहा गृहस्थ व्रती कहा जा सकता है । अथवा राजा होने योग्य राजपुत्र को जैसे राजा कह दिया जाता है इसी प्रकार मुनिधर्म में अनुराग करने वाला श्रावक होता है । कालान्तर में पूर्ण व्रतों को धारेगा अतः नैगम नयकी अपेक्षा वर्तमान में भी व्रती कहा जा सकता है । और भी नैगम नय के व्यापार से विशेषतया यों समझिये कि एक देश से हिंसा आदि का परित्याग करता हुआ गृहस्थ अवश्य ही सम्पूर्ण रूप से हिंसा आदि की विरति के प्रति अभिमुख हो कर संकल्प कर रहा सन्ता ही व्रती इस शब्द करके व्यवहृत होता है जैसे कि नगर के बहुभागों में निवास करने के अभिमुख हो रहा पुरुष नगरावास शब्द कर के कहा जाता है। और राजपने के अभिमुख हो रहे राजपुत्र को राजापन का व्यपदेश कर दिया जाता है । अथवा बत्तीस हजार देशों के अधिपति को सार्वभौम राजा कहते हैं। फिर भी एक देश का अधिपति भी राजा कहा जा सकता है। तिसी प्रकार अठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तर गुणों का धारी अनगार ही पूर्णव्रती है किन्तु अणुव्रतों का धारी श्रावक भी व्रती कहा जा सकता है। अन्यथा धनी, विद्यावान्, कलावान्, तपस्वी, कुलवान्,