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________________ ५९८ श्लोक - बार्तिक यों कह दिया जाय, अथवा द्वितीय पक्ष में व्रती यों हो जावे इस प्रकार विकल्प करने में जब कि हम किसी भी फल को नहीं देख रहे हैं । मात्र दो व्यवहारों के लिये शब्द बोल देना ही कोई फल नहीं हो जाता है । देवदत्त को दाल से या दही से अथवा घी से भोजन करा देना यहां विकल्पों का न्यारा फलविशेष है । किन्तु निशल्य अथवा व्रती यों नाममात्र दो के कथन करने का कुछ भी फल नहीं है । यदि कोई कहे कि संशय की निवृत्ति हो जाना फल है। कोई निश्शल्य को व्रती से भिन्न हो जाने का यदि संशय कर ले तो इस संशय की निवृत्ति “निश्शल्यो व्रती" कहने से हो जाती है । कश्चित् पण्डित कहते हैं कि यह समाधान करना भी समीचीन नहीं है । क्योंकि उन निश्शल्यपन और व्रतीपन का अविनाभावसम्बन्ध होने से ही संशय की निवृत्ति हो जाती है जैसे कि दोनों के अविनाभाव का निर्णय हो जाने से विपर्यय और अनध्यवसाय नाम के समारोपों की निवृत्ति हो जाती है। यहां तक कश्चित् पण्डित पूर्व पक्ष कर रहा है। अत्राभिधीयते—न वांगांगिभावस्य विवक्षितत्वात् । निःशल्यव्रतित्वयोर्ह्यत्रांगांगिभावो विवक्षितः । प्रधानानुविधानादप्रधानस्य प्रधानं हि व्रतित्वमंगि । तन्निः शल्यत्वमप्रधानमंगभूतमनुविधत्ते, यत्र व्रतित्वं तत्रावश्यं निःशल्यत्वं भवतीति न तस्य तेन विरोधो नापि विशेषणं तदनर्थकं । न विकल्पोपगमो । न च फलविशेषाभावोपि प्रधानगुणदर्शनेन मतांतरव्यवच्छेदस्य फलस्य सिद्धेः । तेन कृतनिदानस्यापि मायाविनो मिथ्यादृष्टश्च हिंसादिभ्यो विरतावपि प्रतित्वाभावः सिद्धः । मायानिदानमिथ्यादर्शन रहितस्यापि चासंयत सम्यग्दृष्टेर्वतित्वाभावः प्रतिपादितः स्यात् ततः ॥ यहाँ आचार्य महाराज करके समाधान वचन कहा जाता है, कि उक्त दोष देना ठीक नहीं, कारण कि यहाँ अंगभाव और अंगीभाव की विवक्षा की जा चुकी है। निश्शल्यपन और व्रतीपन का यहाँ निश्चय से अंग-अंगीभाव मानना विवक्षा प्राप्त हो रहा है । व्रतीपना अंगी है उसका अंग निश्शल्यपना है । शल्य हटेंगी और व्रत आवेंगे तब व्रती कहा जायगा। जैसे कि बहुत दूध, घी वाले गोपाल को गोमान् कहा जाता है । अनेक ठल्ल गोओं के होने पर भी गायवाला कहना शोभा नहीं देता है। जो निश्शल्य हो करती है वही सच्चा व्रती है । अप्रधान पदार्थ अपने अंगी प्रधान का अनुविधान यानी अनुकूल आचरण किया करता है । जब कि व्रतोपना यहाँ प्रधान है अंगी है वह निश्शल्यपन, अप्रधान, अंग भूत उस व्रतीपन का अनुविधान करता रहता है निश्शल्यत्व और व्रतित्व में अंग अंगीभाव सम्बन्ध है कोई भी किसी का उपकार कर सकता है यहाँ विशेषतया व्रतीपन में निश्शल्यपना उपकार करता है || कश्चित् का निशल्यत्व और व्रतित्व में विरोध दोष उठाना ठीक नहीं। क्योंकि जहाँ व्रतीपना है वहाँ निश्शल्यपना अवश्य होता है । इस कारण उस व्रतित्व का उस निश्शल्यत्व के साथ विरोध नहीं है । कश्चित् ने जो उस व्रतीपन का विशेषण हो रहे उस निश्शल्यपन को व्यर्थ कहा था वह भी ठीक नहीं है क्योंकि व्रती का शल्यरहितपना विशेषण सार्थक है । शल्यरहित होते हुये ही व्रती हो सकता है अन्यथा नहीं । निश्शल्य अथवा व्रती यों विकल्प का स्वीकार करना भी बुरा नहीं है । जैसा कश्चित् ने विकल्प का निषेध करते हुये विशेषफल का अभाव कहा था, जब कि यहां फलविशेष दीख रहा है तो फलविशेष का अभाव कहना भी समुचित नहीं है । व्रतीत्व और निश्शल्यत्व की प्रधानता और गौणता दिखलाने करके अन्य मतों का व्यवच्छेद हो जाना रूप फल की सिद्धि हो जाती है। तिस कारण निदान कर चुके भी मायाचार और मिथ्यादृष्टि जीव के हिंसा आदिकों से विरति होने पर भी व्रतीपन का अभाव सिद्ध हो चुका |
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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