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________________ ५९७ सप्तमोऽध्याय मिथ्यादर्शनभेदात् । ____ अनेक प्रकारकी शारीरिक मानसिक वेदना स्वरूप पैनी सलाइयों करके प्राणीसमुदाय की हिंसा करने से शल्य समझी जाती है । बाण का अग्रफलक जैसे शरीर में घुस कर अनेक बाधाओं को करता है तिसी प्रकार माया आदिक शल्य भी शारीरिक, मानसिक, बाधाओं की कारण होने से शल्य के समान हो रहीं शल्यरूप से उपचरित हो जाती हैं यों माया आदिक में शल्यपने के उपचार की सिद्धि हो जाती है । "शल्यमिव शल्यं" । यह शल्य मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य, के भेद से तीन प्रकार है । छलकरना, ठगना, धोखा देना इत्यादिक माया शल्य है, विषय भोगों की आकांक्षा करना निदान शल्य है। तत्त्वों का श्रद्धान नहीं कर अतत्त्वों का श्रद्धान किये बैठना मिथ्यादर्शन शल्य है । शरीर में या मसूड़ों में छोटी सी फांस लग जाती है वही खटकती रहती है सलाई शूल या बाण घुस जाय तब तो महान दुःखपूर्ण खटका लगा रहता है । इसी प्रकार ये तीन शल्ये सदा अव्रती जीवों के चुभती रहती हैं। तीन शल्यों से रहित हो कर ही व्रतों को धारने वाला व्रती कहा जा सकता है। कश्चिदाह-विरोधाद्विशेषणानुपपत्तिः, मिथ्यादर्शनादिनिवृतेव्रतित्वाभावात् सद्दर्शनादित्वसिद्धेव्रताभिसंबंधादेव व्रतित्वघटनात् । विरुद्धं व्रतित्वस्य निःशल्यत्वं विशेषणं दण्डित्वस्य चक्रित्वविशेषणवत् । तदविरुद्धेपि विशेषणस्यानर्थक्यं वान्यतरेण गतार्थत्वात् । निःशल्य इत्यनेनैव व्रतित्वसिद्धितिग्रहणस्यानर्थक्यं व्रतीति वचनादेव निःशल्यत्वसिद्धेस्तद्वचनानर्थक्यवत् । विकल्पइति चेन्न, फलविशेषाभावात् निःशल्य इति वा व्रतीति वा स्यादिति । विकल्पे हि न किं चित्फलमुपलभामहे । न च व्यपदेशद्वयमात्रमेव फलं । संशयनिवृत्तिः फलमित्यपि न सम्यक, तदविनाभावादेव संशयनिवृत्तेविपर्ययानध्यवसायं निवृत्तिवदिति । ____ यहाँ कोई तर्कबुद्धि पण्डित लम्बा चौड़ा पूर्वपक्ष उठाकर कह रहा है कि शल्यरहितपना और व्रतसहितपना यों ये दोनों ही विरुद्ध हैं । शल्य रहित होने से कोई व्रती नहीं हो सकता है । जैसे कि पुस्तक रहित हो जाने से कोई विद्यावान नहीं हो सकता है या दण्ड रहित हो जाने से कोई छत्र सहित नहीं हो सकता है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन आदि तीनों शल्यों की निवृत्ति हो जाने से व्रती हो जाने का अभाव है । सम्यग्दर्शन अथवा समीचीनरीत्या प्रथम प्रतिमाधारी दार्शनिक आदिपन की सिद्धि हो जाने के कारण व्रतों का आत्मनिष्ठ सम्बन्ध हो जाने से ही व्रतीपना घटित हो जाता है। एक बात यह भी है कि व्रती होने का निःशल्यपना विशेषण विरुद्ध है जैसे कि दण्डधारीपन का चक्रसहितपना विशेषण विरुद्ध है । यदि उन शल्यरहितपन और व्रतसहितपन विशेषणों को अविरुद्ध भी मान लिया जाय तथापि एक का व्यर्थपना हैं क्योंकि निश्शल्यपन और व्रतोपन दोनों में से एक करके ही अभीष्ट अथे प्राप्त हो जावेगा। जैसे कि "उपयोगवान् आत्मा” यहां आत्मत्व या उपयोग दोनों में से एक ही करके इष्टसिद्धि हो जाती है दोनों एक ही तो हैं । जब कि निःशल्य यों इस कथन कर के ही व्रतीपन को सिद्धि हो जाती है ऐसी दशा होने पर सूत्र में व्रती का ग्रहण करना व्यर्थ है जैसे कि व्रती यों कथन करने से ही जब निश्शल्यपना सिद्ध हो जाता है अतः उस निःशल्यपन का वचन व्यर्थ पड़ता है। यदि यहां कोई यों कहे कि यहां विकल्प है शल्यरहित भी उत्तरवर्ती सूत्र करके अगारी या अनगार हो सकता है अथवा व्रती भी अगारी वा अनगार हो सकता है यों विशेषणविशेष्यसम्बन्ध भी बन जाता है। उत्तर में कश्चित् कहता है कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों विकल्प करने में विशेषफल का अभाव है। एक पक्ष में निश्शल्य
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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