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श्लोक-वार्तिक संयम को धारने वाले मुनियों के उस पिच्छ आदिका त्याग हो जाता है। जैसे कि सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात संयम के धारी मुनियों के पिच्छ आदि का त्याग है । अर्थात्-"तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं खु तित्थयरमूले । पच्चक्खाणं पढिदो, संझूया दुगाउपविहारो” जन्म से तीस वर्ष, पर्यन्त पूर्ण आनन्द पूर्वक ठहरे पुनः दीक्षाग्रहरण कर तीर्थंकर के सन्निकट सात, आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक पूर्व का अध्ययन करे उन मुनि के परिहारविशुद्धि संयम होता है। इनके वर्षाकाल में एक स्थान पर ही ठहरने का नियम नहीं है । परिहारविशुद्धि संयमवाले मुनि करके किसी जीव को बाधा नहीं पहुँचती है। प्रत्युत ये किसी जीव के ऊपर यदि बैठ भी जावें तो उस जीव को विशेष आनन्द मिलेगा। रोग, शोक दूर हो जावेंगे। अतः इनको पिच्छीग्रहण की आवश्यकता नहीं है “तित्थयरा तप्पयरा हलधर चक्की य वासुदेवा य । पडिवासुदेव भोमा आहारं णत्थि णीहारो॥” तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, आदि के आहार है नीहार नहीं, ये मुनि हो जाते हैं तब भी इन मुनियों के मलमूत्र आदिका संसर्ग नहीं है अतः अंग शुद्धि के लिये राखे गये कमण्डल की आवश्यकता नहीं। मात्र चिन्ह स्वरूप भले ही रख लिया जाय । विशेष ज्ञानी या अंगवेत्ता मुनि महाराज शास्त्र भी नहीं रखते हैं । ज्ञान अल्प भी होय किन्तु कषायों का मन्द करना ही जिन का लक्ष्य होय वे भी शास्त्रों को रखने में उत्सुक नहीं रहते हैं । वीतरागभावों की वृद्धि हो जाने पर स्वयं श्रुतज्ञान बढ़ जाता है जो कि प्रकृष्टध्यान या श्रेणियों में उपयोगी है । लोक में भी देखा जाता है कि शास्त्रज्ञान थोड़े निमित्त से हो जाता है। छोटी आयु के पण्डित बड़े बूढ़े पचासों वर्ष स्वाध्याय करने वालों को पढ़ा देते हैं । मुनि अवस्था में घटाटोपों की आवश्यकता नहीं है । भेद विज्ञान हो गया बस बुद्धि पुरुषार्थ पूर्वक तेरह प्रकार चारित्र को पालते हुये कदाचित् उपाध्याय से अत्यल्प अध्ययन कर तत्त्ववेत्ता बन जाते हैं । उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में भी पिच्छ, कमण्डलु नहीं हैं। हाँ छठवें गुणस्थान और निरतिशय अप्रमत्त सातमे गुणस्थान में मुनियों के पिच्छ आदि का ग्रहण है। यों सामायिक और छेदोपस्थापना नामक संयमों को धारने वाले मुनिमहाराजों के तो संयम साधने का उपकारी उपकरण होने से प्रमार्जन करने वाले प्रतिलेखन यानी पिच्छिका का ग्रहण करना समुचित ही है। भले ही पिच्छ या कमण्डलु के ग्रहण में म मूछो का सद्भाव है तो भी प्राण संयम का विशेष उपकारी होने से पिच्छी का ग्रहण है। एक बात यह भी है कि संयम के उपकरण का ग्रहण करना मुनिमार्ग का विरोधक नहीं है प्रत्युत साधुमार्ग के अनुकूल है। हाँ वस्त्र, पात्र, आदि का ग्रहण करना तो मोटी मूर्छा के अनुसार हुआ है और मुनिमार्ग निर्ग्रन्थता का विरोधी भी है।
नत्वेवं सुवर्णादिग्रहणप्रसंगः तस्य नाग्न्यसंयमोपकरणत्वाभावात् तद्विरोधित्वात् । सकलोपभोगसम्यग्निबन्धनत्वाच्च । न च त्रिचतुरपिच्छमात्रमलाबूफलमात्रं वा किंचिन्मूल्यं लभते यतस्तदप्युपभोगसंपत्तिनिमित्तं स्यात् । न हि मूल्यदानक्रययोग्यस्य पिच्छादेरपि ग्रहणं न्याय्यं, सिद्धान्तविरोधात् ॥
जिस प्रकार संयम का उपकरण हो रही पिच्छिका का ग्रहण है इस प्रकार सोना, चांदी, मोहर, नोट, गिन्नी, आदि के ग्रहण कर लेने का तो प्रसंग नहीं आता है । क्योंकि उस सुवर्ण आदि के ग्रहण को नग्नता या संयम के उपकरणपन का अभाव है प्रत्युत सुवर्ण आदि का ग्रहण करना उस संयम या नग्नता का विरोधी है। एक बात यह भी है कि सुवर्ण, रुपया आदि का ग्रहण करना तो सम्पूर्ण भोग उपभोगों का बहुत अच्छा कारण है। सोना, रुपया, आदि से अनेक उपभोग मोल लिये जा सकते हैं। आजकल सुवर्ण ही राष्ट्रकी अटूट सम्पत्ति मानी गयी है जिसके पास अधिक सोना है वही देश दूसरे देशों को