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________________ सप्तमोऽध्याय सरका लेता है तो वह अवश्य मूर्छावान है। आर्यिका भी यहाँ वहाँ खिसक गये वस्त्र को अपने हाथ करके लज्जावश बुद्धिपूर्वक पुनः पहन लेती है तो वह भी मूर्छायुक्त हो रही सामायिक भावों में स्थिर नहीं रह पाती है। किन्तु यहाँ वैष्णव सम्प्रदाय वाले या श्वेताम्बर जैन यों कहते हैं कि अपने हाथ द्वारा बुद्धि पूर्वक पटखण्ड आदि को ग्रहण कर पहिन रहा भी साधु मूर्छा रहित है ऐसे असत्यभाषण की उन वैष्णव या श्वेताम्बरों ने सौगन्ध ले रखी है अहिफेन खाने वाले या उद्भ्रान्त पुरुष उन्माद पूर्वक ऐसी रद्दी बातों को कहते हैं । यदि बुद्धिपूर्वक वस्त्रधारण कर रहा भी मूर्छा रहित है तो इसी प्रकार तन्वी (पतली तरुणी) का प्रमालिंगन कर रहे साधु के भी उस तन्वी की मूछो से रहितपन का प्रसंग आ जावेगा। तिस कारण यह सिद्ध हो जाता है कि मूर्छा के बिना कपड़ा, दण्ड, पात्र आदिका स्वीकार करना कथमपि नहीं सम्भवता है क्योंकि उस मूर्छा को हेतु मान कर ही उस कपड़े आदिका स्वीकार करना कार्य उपजता है । हाँ वह मूर्छा तो उन पट आदि का ग्रहण के अभाव हो जाने पर भी सम्भावित हो रही है। अनेक पशु पक्षी या द्रव्यलिंगी साधुओं के प्रबल मूर्छा पायी जाती है। कार्य के न होने पर भी कारण देखा जाता है जैसे कि धूम के नहीं होने पर भी मुर्मुर आदि अवस्थाओं में अग्नि देखी जा रही है अर्थात् "न कारणानि अवश्यं कार्यवन्ति भवन्ति” कारणों से अवश्य कार्य हो जाने ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । ( मत्वर्थो जनकत्वं, हाँ “सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये" सामर्थ्य का प्रतिबन्ध नहीं होना और अन्यकारणों की परिपूर्णता हो जाने पर समर्थ कारण उत्तर क्षण में कार्य को अवश्य कर देता है। किन्तु "कार्याणि तु अवश्यं कारणवन्ति भवन्ति" कार्य तो अवश्य ही कारण वाले होते हैं । ( जन्यत्वं मत्वर्थीयार्थः) कारणों के बिना कार्य का आत्मलाभ ही नहीं हो सकता है। अनन्तानन्त कारण अन्य सहकारी कारणों के नहीं मिलने पर कार्यों को किये बिना ही मर जाते हैं। सभी बीज अंकुरों को नहीं उपजा पाते हैं, लाखवां, करोड़वां भाग बीज अंकुर होकर उपजते हैं शेष बहुभाग खाने, कूड़े, खात, आदि में व्यय हो जाते हैं। गर्भोत्पादक शक्तियाँ बहुभाग नष्ट हो जाती हैं । सभी अंतरंग बहिरंग कारणों की यही दशा है । सभी कारण यदि कार्यों को कर बैठे तो स्थान ही नहीं मिलै । यो “अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुतो लक्षणम्" प्रत्येक कारण कुछ न कुछ तो कार्य करता ही रहता है, स्थान घेरना, भार रख देना, अपने ठलुआपन का ज्ञान करना, आदि साधारण कार्य होते रहते हैं जो कि अगण्य हैं । अतः कारण को कार्यवान होने का नियम नहीं है। धानों के तुषों की अग्नि भीतर ही भीतर धधकती रहती है । बाहिर धुयें रूप कार्य को नहीं उपजाती है। अयोगोलक अंगार, भूभड़ की आग भी धुं को नहीं उत्पन्न करती है । इसी प्रकार प्रकरण में यह कहना है कि वस्त्र, पात्र आदि परिग्रहों का ग्रहण किये बिना भी अंतरंग कारण वश मूर्छा सम्भव जाती है । किन्तु जहाँ इच्छा प्रयत्न पूर्वक वस्त्र, दण्ड, चर्म, आदि का ग्रहण हो रहा है वहाँ तो मूर्छा अवश्य ही है। नन्वेवं पिच्छादिग्रहणेपि मूर्छा स्यात् इति चेत्, तत एव परमनैर्ग्रन्थ्यसिद्धौ परिहारविशुद्धिसंयमभृतां तत्यागः सूक्ष्मसांपराययथाख्यातसंयमभृन्मुनिवत् । सामायिकछेदोपस्थापनसंयमभृतां तु यतीनां संयमोपकरणत्वात् प्रतिलेखनस्य ग्रहणं सूक्ष्ममूर्खासद्भावेपि युक्तमेव, मार्गाविरोधित्वाच्च । ___अपने वस्त्र, आदिको ग्रहण करने के पक्ष का अवधारण कर रहा कोई पण्डित आक्षेप कर रहा है कि इस प्रकार तो जैनों के यहाँ पिच्छी, कमण्डलु, आदि के ग्रहण करने में भी साधु के मूर्छा हो जायगी। यों कहने पर तो ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि तिस ही कारण से यानी पिच्छ आदि के ग्रहण में स्वल्प मूर्छा का अंश होने से ही जब परम उत्कृष्ट निर्ग्रन्थपन की सिद्धि हो जाती है तब परिविशुद्धि नाम के
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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