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________________ ५९२ श्लोक-वार्तिक इस उक्तसयुक्तिक कथन से इस मन्तव्य का भी खण्डन हो चुका है कि लिंग के दर्शन से अलबेली कामिनी जनों के हृदय में कामवासना प्रयुक्त खोटे अभिप्राय उपजेंगे इस कारण उन कामिनियों के निकृष्ट अभिप्रायों की उत्पत्ति या लिंग देखने के निवारणार्थ साधु को वस्त्रखण्ड का ग्रहण करना उचित है । वस्त्रद्वारा गुह्य अंग का गोपन हो जाने से मनचली, अलबेली, नबेली, कामिनियों के दुरभिप्राय नहीं उपज सकेंगे । ग्रंथकार कहते हैं कि उसका निवारण करना ही वस्तुतः उनकी दनी, चौगुनी अभिलाषाओं की उत्पत्ति का कारण है । अंगों को वह कामुक जीव गुप्त रखता है जिस के हृदय में कामवासना नागिन लहरें ले रही है। बालक अपने गुप्त अंगों को नहीं ढकता है, क्योंकि बालक के कषायभाव नहीं है । अनेक पुरुष, या स्त्रियां दूसरों के सुन्दर अंगों के निरीक्षणार्थ आनखशिख प्रयत्न करते हैं भले ही वे उस में सफल मनोरथ न हो सकें किन्तु मूर्छा या कुशील को हेतु मानकर पापास्रव तो हो ही जाता है । एक बात यह भी है कि कहां तक अंगों को ढका जायगा, नेत्र, दन्तावली, वक्षःस्थल, नाभि, हाथ, आदि मनोहर अंगों के देखने पर भी पुंश्चली वनिताजनों के कुत्सित अभिप्रायों का हो जाना सम्भवता है। ऐसा हो जाने उन नेत्र आदि को भले प्रकार ढक देने वाले कपड़े के भी ग्रहण करने का प्रसंग आ जावेगा कारण कि उस ही हेतु से यानी कामिनी जनों की निकृष्ट अभिलाषाओं का निवारण कर देने वाला होने से ही उस लिंग आच्छादक वस्त्र के समान नयन आदि का आच्छादक वस्त्र भी रखना पड़ेगा। ऐसी दशा में सुन्दर नेत्रवाले साधु की भला ईर्यासमिति कैसे पल सकेगी ? सुन्दर हाथ पांव वाले मुनि के एषणासमिति नहीं पल सकेगी। सुन्दरता की परिभाषा भी बड़ी विलक्षण है। किसी को कुरूपा का अंग ही देवांगना का सा स्वरूप जचता है, अन्य को अत्यन्त सुन्दर रूप भी विषवत् प्रतीत होता है । किस किस की अपेक्षा साधु अपने अंग को छिपाते फिरेंगे। उलूक को सूर्य नहीं रुचता है, कमल को रात्रि नहीं रुचती है। कनैटा दूसरे की अच्छी आंख पर ईर्ष्या करता है । दरिद्रपुरुष मेला को बुरा समझता है। पण्डितों को मूर्खजन शत्र समझते हैं। निर्धन पुरुषों की भावनाओं अनुसार बजाजखाना, सराफा, हलवाईहट्टा, नाजमण्डी, मेवाबाजार आदि सुन्दर वस्तुओं के क्रय विक्रय स्थान भले ही जन्म जन्मान्तरों के लिये भी मिट जाय उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। वस्तुतः विचारा जाय तो अपनी पवित्र 3 दुर्भावनाओं को नहीं उपजने देना ही स्वाधीन कर्तव्य है। जगत् की प्रक्रिया टाले नहीं टल सकती है। बालक के समान मुनि की निर्विकार चेष्टा होती है। दूसरों के अभिप्रायों को रोकने के लिये मुनि महाराज ने ठेका नहीं ले रखा है। दरिद्रों के खोटे अभिप्राय उत्पन्न होवेंगे एतावता बाजार या वस्त्र, आभूषणों का पहनना बन्द नहीं हो सकता है। तभी तो चारित्र मोह के उदय होने पर हुई मुर्छा को परिग्रह माना है । वस्त्रग्रहण में अवश्य मूर्छा है। सोऽयं स्वहस्तेन बुद्धिपूर्वकपटखंडादिकमादाय परिदधानोपि तन्मूर्छारहित इति कोशपानं विधेयं, तन्वीमाश्लिष्यतोऽपि तन्म रहितत्वमेवं स्यात् । ततो न मुर्जामन्तरेण पटादिस्वीकरणं संभवति तस्य तद्धेतुकत्वात् । सा तु तदभावेपि संभाव्यते कार्यापायेपि कारणस्य दर्शनात् । धूमाभावेपि मुमुराद्यवस्थपावकवत् । सो यह प्रसिद्ध हो रहा रक्तवस्त्रधारी संन्यासी या शुक्लवस्त्रधारी श्वेताम्बर साधु अपने हाथ करके बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न पूर्वक वस्त्रखण्ड, लंगोटी आदि को ग्रहण कर पुनः पहनता हुआ भी उसकी मूर्छा से रहित है यों कहते रहने में कोशपान कर लेना चाहिये । भावार्थ-सद्गृहस्थ यदि सामायिक करने बैठे उसका वस्त्र वायु आदिक से यहाँ वहाँ हट जाय पुनः वह यदि उस वस्त्र को वहाँ का वहीं अंग पर
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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