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________________ सप्तमोऽध्याय ५९१ कोई रत्नत्रय या आत्मशुद्धि का चिह्न नहीं है । चर्म तो साक्षात् त्रस जीवों का उत्पत्तिस्थान है । अपवित्र, अशुद्ध, अस्पृश्य ऐसे चर्म को देखने या छूने से जब गृहस्थ भी भोजन करना छोड़ देता है तो साधु ऐसे सजीवों के घात से उपजे निकृष्ट पदार्थ को अपने पास कैसे रख सकते हैं ? अन्य चीमटा, घड़ी, आदिक भी संयम के उपकरण नहीं सम्भवते हैं । अतः मुनिजन मूर्छा के कारण हो रहे वस्त्र आदि उपधियों को परिग्रह मानकर उन से विरक्त रहते हैं । लञ्जापनयनार्थं कर्पटखण्डादिमात्रग्रहणं मूर्छाविरहेपि संभवतीति चेन्न, कामवेदनापनपनार्थं स्त्रीमात्रग्रहणेपि मूर्छाविरह प्रसंगात् तत्र योषिदभिष्यंग एव मूर्खेति चेत्, अन्यत्रापि वस्त्राभिलापः सास्तु केवलमेकत्र तु कामवेदना योषिदभिलाषहेतु परत्र लज्जा कर्पटाभिलाषकारणमिति न तत्कारणनियमोस्ति, मोहोदयस्यैवान्तरंगकारणस्य नियतत्वात् ॥ कोई परवाह रहा है कि लज्जा का निवारण करने के लिये केवल कपड़े का खण्ड, काठ की बनी हुई कौपीन, पीतल, मूंज का बना हुआ उपकरण आदि का ग्रहण करना मूर्च्छा से रहित होने पर भी सम्भव जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो कामजन्य वेदना का निराकरण करने के लिये मात्र स्त्री के ग्रहण करने में भी मूर्छारहितपन का प्रसंग आ जायगा । अर्थात् कोई यों कहता है कि मूर्छा के न होने पर भी लज्जा के निवारणार्थ कपड़े आदि का ग्रहण है, वह यह भी कह सकता है कि मूर्छा के नहीं होने पर भी काम पीड़ा को दूर करने के लिये स्वल्पकाल पर्यन्त केवल स्त्री का ग्रहण है । वस्त्र से लज्जा दूर हो जाती है, स्त्री से कामपीड़ा निवृत्त हो कर आकुलता मिट जाती होगी, द्यूतक्रीड़ा की कण्डूया जुआ खेलने से अलग हो जायगी। इसी प्रकार अपमान, क्षुधा, निर्बलता, हास्य, कण्डूया, कारागृह वास, रिरंसा, दीनता, दरिद्रता आदि के निवारणार्थ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाप क्रियाओं में निमग्न हो सकता है। अपमान आदि का निवारण करने वाला जीव मूंड़ा लगा देगा कि उक्त हिंसा आदि क्रियाओं में मेरे प्रमादयोग नहीं है जैसे कि लज्जा को दूर करने के लिये वस्त्रखण्ड आदि के ग्रहण में मूर्छा नहीं मानी जा रही है। इस पर यदि आक्षेपकार यों कहे कि वहां स्त्रीमात्र के ग्रहण में तो स्त्री का प्रेमालिंगन करना ही मूर्छा है अतः कोई भी साधु कामवेदना के प्रतीकारार्थ स्त्रीमात्र को ग्रहण करने में मूर्छा रहित नहीं कहा जा सकता है । यों कहने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो अन्य स्थल पर भी यानी लज्जानिवारणार्थ वस्त्रखण्ड आदि के ग्रहण करने में भी वस्त्र की अभिलाषा करना ही वह मूर्छा समझी जाओ । केवल इतना ही अन्तर है कि एक स्थल पर तो स्त्री की अभिलाषा होने का कारण काम वेदना है और दूसरे स्थल पर कपड़े की अभिलाषा का कारण लज्जा हो रहा है । कहीं प्रतिहिंसा की अभिलाषा का कारण अपमान हो सकता है । सुवर्ण की अभिलाषा का कारण दरिद्रता हो सकती है। इस प्रकार उस मूर्छा के कारणों का कोई नियम नहीं है कि स्त्री प्रसंग करना, वस्त्राभिलाषा करना, कौत्कुच्य करना आदिक ही मूर्छा के नियत कारण होवें । मूर्छा के बहिरंग कारण असंख्यात हो सकते हैं। हाँ अन्तरंग कारण एक मोहनीयकर्म का उदय होना तो नियत है । वस्त्र - खण्ड आदि के ग्रहण करने में अंतरंग कारण और बहिरंग कारण विद्यमान हैं अतः मूर्छा अवश्यंभाविनी है । तभी तो परिग्रह रहित साधु वस्त्र आदि का ग्रहण नहीं करते हैं । एतेन लिंगदर्शनात् कामिनीजनदुरभिसंधिः स्यादिति तन्निवारणार्थं पटखण्डग्रहणमिति प्रत्युक्तं, तन्निवारणस्यैव तदभिलाषकारणत्वात् । नयनादिमनोहरांगानां दर्शनेपि वनिताजनदुरभिप्रायसंभवात् तत्प्रच्छादनकर्पटस्यापि ग्रहणप्रसक्तिश्च तत एव तद्वत् । Late
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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