________________
५८८
श्लोक-वार्तिक और स्त्री का ग्रहण कर लेने से सर्वथा निवृत्ति हो जाने का अभाव है। अर्थात् परिग्रह को इकट्ठा करने वाला पुरुष चोरी का त्याग नहीं कर सकता है । वेश्याय या कतिपय व्यभिचारिणी स्त्रियां पुरुषों से धन के ग्रहण का उद्देश्य कर कुशील सेवन करती हैं। कतिपय पुरुष भी क्षेत्र, गृह, धन, खाद्य, पेय आदि परिग्रह की प्राप्ति का लक्ष्य कर मनचली धनाढ्य स्त्रियों के साथ गमन करते हैं । कतिपय परिग्रही जीव स्त्रियों, लड़कियों आदि का क्रय, विक्रय, कर धन उपार्जन करते हैं, कितने ही वृद्ध परिग्रही जीव चोरी या परस्त्रियों की अनुमोदना करते हैं। यों कृत, कारित, अनुमति से अनेक दोष लगते रहते हैं अतः परिग्रही के चोरी करने या स्त्रीग्रहण करने का परित्याग नहीं है । यदि उन चोरी और स्त्रीग्रहण की निवृत्ति मानी जायगी तो एक देश से हिंसादिक पापों से भी विरति हो जाने का प्रसंग आवेगा और ऐसी दशा में एक देशविरति और अविरत परिग्रहीपन का सर्वथा विरोध है जो एक देशविरति को धारण करता है वह परिग्रह संग्रह में आसक्त नहीं है किन्तु परिमितपरिग्रही होता संता अनेक परिग्रहों से विरक्त है ।
एतेन सर्वथा हिंसायामनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणामवश्यंभावः प्रतिपादितस्तत्रानृतादिभ्यो हिंसांगेभ्यो विरतेरसंभवात् संभवे वा सर्वथा हिंसानवस्थितेः ।।
पाँचों पापों का अविनाभाव होकर प्रवर्तन को कथन कर रहे इस प्रकरण करके यह सिद्धान्त भी समझा दिया गया है कि हिंसा नामक पाप क्रिया में अन्य झठ, चोरी, कशील, परिग्रह इन चारों क्रियाओं का सभी प्रकारों से अवश्य हो जाना नियत है क्योंकि उस हिंसा आनन्दी जीव में हिंसा के अङग हो रहे अनृत आदिकों से विरति हो जाने का असम्भव है । यदि विकल्प रख कर हिंसारत पुरुष में अनत आदिकों से विरति हो जाने का संभव माना जायगा तो उस जीव की सभी प्रकारों से हिंसा में अवस्थिति नहीं हो सकती है । अर्थात् जो अनृत आदि से विरति कर रहा है वह जीव सर्वथा हिंसा में आसक्त नहीं है। सत्याणुव्रत, अचौयोणुव्रत आदि के साथ उसके अहिंसाणुव्रत भी सम्भव रहा है। यों हिंसा के साथ चारों पापों का अविनाभाव दर्शा दिया गया है ।
तथैवानृते सर्वथा हिंसास्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणामवश्यम्भावः प्रकाशितः हिंसांगत्वेनानृतस्य वचनात्तत्र तस्याः सामर्थ्यतः सिद्धेः । स्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणामपि सिद्धेस्तदंगत्वान्यथानुपपत्तेः ॥
जिस प्रकार परिग्रह में या हिंसा में शेष चारों अव्रतों का अविनाभाव है तिस ही प्रकार अनत नामक पाप में भी शेष हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहों का सम्पूर्ण प्रकारों से अवश्यम्भाव प्रकाशित कर दिया गया है क्योंकि ग्रन्थों में अनत का हिंसा के अंगपने कर के कथन किया गया है। अर्थात् “सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत्, अन्तवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवसरति” ।। ( पुरुषार्थसिद्धय पाय ) स्वयं ग्रन्थकार ने असत्य का निरूपण करते समय कहा था "तेन स्वपरसंतापकारणं यद्वचोगिनां । यथा दृष्टार्थमप्यत्र तदसत्यं विभाव्यते" ॥ अनत भाषण करना हिंसा का अंग है, अतः अनृत में उस हिंसा की बिना ही सामर्थ्य से सिद्धि हो जाती है । साथ ही अन्त में चोरी, कुशील परिग्रहों की भी सिद्धि है कारण कि झूठ को चोरी आदि का अंगपना अन्यथा बन नहीं सकता है। अथवा चोरी, कुशील परिग्रहों को झठ का अंग हो जाना अन्यथा यानी अवश्यम्भाव के बिना बन नहीं सकता है । जो जिसका अंग है उस अंग का अंगी भी वहाँ विद्यमान है, यों झूठ बोलने वाले जीव के शेष चार अव्रतों की सत्ता भी पायी जाती है ।।
तथास्तेये सर्वथा अवश्यंभाविनी हिंसा द्रविणहरणस्यैव हिंसात्वात् द्रविणस्य बाह्यप्राणात्मकत्वात् । तथाचोक्तं-"यावत्तद्रविणं नाम प्राणा एते बहिस्तरां । स तस्य हरते प्राणान्