SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८९ सप्तमोऽध्याय यो यस्य हरते धनं ॥ इतिहिंसाप्रसिद्धी चानृताब्रह्मपरिग्रहाणां सिद्धिस्तदंगत्वात् ॥ तिस ही प्रकार चोरी में भी सभी प्रकारों से हिंसा अवश्य हो जावेगी, क्यों कि धनका हरण करना ही हिंसा है। यद्यपि बाह्यप्राण तो इन्द्रिय आदिक दश हैं तथापि धन को बाह्याप्रणस्वरूप माना गया है, और तिसी प्रकार आषग्रथों में कहा जा चुका है कि जो कुछ वे प्रसिद्ध हो रहे रुपया, भूमि, भूषण, प्रासाद आदिक धन नाम धारी हैं ये सब बढ़िया बाहरले प्राण हैं, जो चोर जिस जीव के धन को हर लेता है वह उसके प्राणों को ही हर लेता है-अर्थात् धन की चोरी हो जाने से हजारों जीवों की मृत्युयें हो जाती हैं । धन का वियोग हो जाने पर हाय करके अनेक जीव मर जाते हैं, असंख्य अधमरे होजाते हैं, कितने ही चिन्ता, आधिव्याधियों से पीड़ित हो कर कुछ काल में मर जाते हैं। पुरुषार्थसिद्धय पाय में भी कहा है । "अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥१॥ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसां । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।।२॥" इस प्रकार चोरी करने में हिंसा की प्रसिद्धि हो जाने पर अनत, कुशील, परिग्रह इन पाप कर्मों की भी सिद्धि हो जाती है, क्यों कि उन अनत आदि अंगियों का यह चोरी अंग है अथवा अंगी चौर्य कर्म के ये अनत आदिक सब अंग हैं । अंग और अंगी का अविनाभाव प्रसिद्ध है। एवमब्रह्मणि सति हिंसायाः सिद्धि स्तस्या रागाद्युत्पत्तिलक्षणत्वात् स्वभोग्यस्त्रीसंरक्षणानंदाच्च हिंसायां च सिद्धायां स्तेयानृतपरिग्रहसिद्धिस्तदंगत्वात् तेषां तद्विरत्यभावाद्विरतौ वा सर्वथा तद्भावविरोधाद् देशविरतिप्रसंगात् ।। परिग्रह, हिंसा, झूठ और चोरी इन एक एक में शेष चारों अव्रतों का अविनाभाव जैसे कह दिया है इस ही प्रकार अब्रह्म के साथ भी शेष चारों पाप वर्त रहे हैं देखिये अब्रह्म यानी कुशील के होते सन्त हिंसा की सिद्धि है ही क्योंकि राग आदि की उत्पत्ति होना उस हिंसा का लक्षण माना गया है"अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हि सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥” यों रागादिक की उत्पत्ति होने से मैथुन में तीव्र भावहिसा होती है । एक बात यह भी है कि स्वकीय भोगने योग्य स्त्रियों के संरक्षण में वैषयिक आनन्द मानने से भी भाव हिंसा बढ़ जाती है। द्रव्यहिंसा तो कुशील में जगत्प्रसिद्ध है । पुरुषार्थसिद्धय पाय में लिखा है-"यद्वेदरागयोगान् मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म, अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ।।१।। हिंस्यंते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत्, वहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥२॥ यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्रेकादनंगरमणादि, तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥३॥ मेथुन में प्रवृत्ति कर रहा प्राणी थावर जंगम जीवों का विध्वंस कर रहा है । श्रुतसागरी में लिखा है-"तथाचोक्तं मैथुनाचरणे मूढ़ म्रियन्ते जन्तुकोटयः। योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिंगसंघट्टपीडिताः। घाते घाते असंख्येया कोटयो जन्तवो म्रियन्ते इत्यर्थः तथा कक्षाद्वये, स्तनान्तरे, नाभौ, स्मरमन्दिरे च स्त्रीणां प्राणिन उत्पद्यन्ते तत्र करादिव्यापारे ते म्रियन्ते, मैथुनाथ मृषावादं वक्ति अदत्तमप्यादत्ते बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह च ॥” यों मथुन क्रिया में तीव्रभावहिंसा और द्रव्यहिंसा प्रसिद्ध हो जाने पर चोरी, असत्य और परिग्रह की सिद्धि तो अनायास हो जाती है क्यों कि वे उसके अंग हैं। मैथुन करने से भी जीव के उन चोरी, झूठ आदि से विरति हो जाने का अभाव है । अथवा कुशील वाले जीव के चोरी आदि से विरति मानी जायगी तब तो सवथा उस कुशील परिणाम के होने का विरोध हो जाने के कारण देशविरति ब्रह्मचर्य अणुव्रत हो जाने का प्रसंग आ जावेगा । ऐसी दशा में कुशील कथमपि नहीं हो सकता है। यों पाँचों में से प्रत्येक का इतर चारों अविरतियों के साथ अविनाभाव बन रहा बखान दिया गया है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy