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सप्तमोऽध्याय सुमेधोभिरभिमन्यमानं पंचधा छिन्नं तस्माद्यस्य हिंसा तस्यानृतादीनि संत्येव तेषां परस्परमविनाभावादहिंसायाः सत्यादविनाभाववत् ॥
जिस कारण कि अतीव जड़ हो रहे और वक्रजड़ हो रहे शिष्यों के प्रति श्रेष्ठधारणा बुद्धिशाली विद्वानों करके ठीक ठीक मान लिये गये सम्पूर्ण सावधक्रियाओं की निवृत्ति कर देना स्वरूप एक ही अहिंसा व्रत को पांच प्रकार से छेद भेद डाला है तिस कारण जिसके हिंसा पायी जाती है उसके अनत आदिक अविरतियां हैं हो, क्योंकि उन हिंसा, झूठ, आदि का परस्पर में अविनाभाव है जैसे कि अहिंसा का सत्य से अविनाभाव हो रहा है। भावार्थ "आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्, अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय । ( पुरुषार्थसिद्धथुपाय ) "झूठ, चोरी आदि सभी पाप क्रियाओं में प्रमाद योग घुसा हुआ है और प्रमादयोग हिंसा है अतः सभी पाप हिंसामय हैं। इसी प्रकार सभी धर्म अहिंसा मय हैं जब कि "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं” प्राणियों की अहिंसा ही जगत् में परमब्रह्म जानी गयी है परमब्रह्म शद्ध आत्मा का स्वरूप है। केवलज्ञान, चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व. 3 ये सभी परिणाम अहिंसा मय हैं ? यदि केवलज्ञान, उत्तम क्षमा, आदि को अहिंसास्वरूप कह दिया जाता है तो सत्य, अचौर्य, आदिक बड़ी सुलभता से अहिंसा आत्मक हो जाते हैं । अतीव मंदबुद्धि, जड़शिष्यों को समझाने के लिये अहिंसा के पांच भेद कर दिये गये हैं। हिंसा के भी झंठ, चोरी, आदि भेद भी तो मात्र समझाने के लिये हैं। आज कल के मिथ्यादृष्टि दार्शनिक या कुचोद्य करनेवाले पापी पुरुषों को यहां वक्र जड़ समझना चाहिये। इन को विनेय यानी विनय करने वाला शिष्य यों कह दिया गया है कि समझा देने पर हिंसा के साथ संभव रहे झूठ, चोरी आदि पापों को ये शिरसा पाप रूपेण बुद्धिग्राह्य कर लेते हैं। एक पण्डित जी ने अमरूद बेचने वाले कुंजड़ा से कहा कि भाई चौमासे में अमरूदों में कीड़े पड़ जाते हैं अतः हम मोल नहीं लेते हैं। कुंजड़ा विनय पूर्वक कहता है कि महाराज पण्डित जी फलों के कीड़े कोई नुकसान नहीं करते हैं । एक क्रान्तिवादी हठी लड़का डांका डाल कर उस धन को देशहित के कार्य में लगाना चाहता है। तीसरा जड़ पुरुष कामा संक्त स्त्रियों की इच्छा पूर्ण कर देने में पाप नहीं समझता है । वेश्यायें पुरुषों के चित्तविनोद को पुण्यकर्म समझ बैठी हैं। इस प्रकार अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग गा रहे विनीत अनेक अतिजड़ और वक्र जड़ जीवों के प्रति विचारशील विद्वानों ने हिंसा या अहिंसा के ही पांच भेद कर दिये हैं। अहिंसा या हिंसा के पांच भेद मानने में किसी को कुछ खटका भी होय तो भी इन पांचों का अविना भाव तो बड़ी प्रसन्नता के साथ सब को मान्य हो जावेगा ही।
ननु च सति परिग्रहे तत्संरक्षणानंदादवश्यंभाविनी हिंसानृते स्यातां स्तेयाब्रह्मणी तु कथमिति चेत् सर्वथा परिग्रहवतः परस्य स्वग्रहणात् स्त्रीग्रहणाच्च निवृत्तेरभावात् । तनिवृत्तौ देशतो विरतिप्रसंगात् सर्वथाविरोधात् ।
___यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि आपने परिग्रह मूलक सम्पूर्ण दोषों का प्रसंग हो जाना बतलाया, परिग्रह के होते सन्ते अन्य झूठ आदि चारों पापों का अविनाभाव कहा, किन्तु यहाँ यह पूछना है कि परिग्रह के होते संते उस परिग्रह के संरक्षण अनुसार हुये आनंद से हिंसा और झूठ तो अवश्य हो जावेंगे क्योंकि परिग्रही, रौद्रध्यानी अवश्य जीवों की हिंसा करता है । झूठ भी बोलता है किन्तु परिग्रह होते संते चोरी और कुशील दोष किस प्रकार संभवेंगे बताओ जिससे कि पांचों पापों का अविनाभाव कह दिया जाय । यो प्रश्न करने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि परिग्रहवाले जीव के दूसरे धन का परिग्रह कर लेने से