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श्लोक-वार्तिक योग से मूर्छा परिणाम परिग्रह है।
___तन्मूलाः सर्वदोषानुषंगाः । यथा चामी परिग्रहमृलास्तथा । हिंसादिनला अपि हिंसादीनां पंचानामपि परस्परमविनाभावात् ।। तदेवाह;
उस परिग्रह को मूल कारण मान कर ही सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, जुआ आदि दोषों का प्रसंग आ जाता है । परिग्रही जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवता है, चूत कीड़ा में प्रवर्त्तता है । “लोभ पाप का बाप बखाना" ऐसी लोक प्रसिद्धि भी है । जिस प्रकार वे सम्पूर्ण दोष इस परिग्रह को मूल मान कर एकत्रित हो जाते हैं उसी प्रकार हिंसा आदि मूल मान कर भी अन्य सभी दोष समुदित हो जाते हैं । क्यों कि हिंसा आदिक पाँचों भी पापों का परस्पर में अविनाभाव हो रहा है । अर्थात् एक बढ़िया गुण के साथ जैसे दश गुण अन्य भी लगे रहते हैं। उत्तम क्षमा को धारने वाला उत्तम मार्दव, आर्जव, आदि को भी थोड़ा बहुत अवश्य पालता है। इसी प्रकार एक प्रधान दोष के साथ अन्य कतिपय दोष लग ही बैठते हैं। एक गुण्डे व्यसनी धनाढय के साथ चार गुण्डे अन्य भी लग जाते हैं । “गुणाः गुणज्ञेषु गुणीभवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः, सुस्वादु तोयं प्रवहन्ति नद्यः समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः" "व्यालाश्रयापि विफलापि सकंटकापि वक्रापि पंकजभवापि दुरासदापि, एकेन बंधुरसि केतकि सर्वजन्तोः एको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषं ॥२॥” “एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः" इत्यादि नीति उक्तियाँ विचारणीय हैं। एक बड़ी आपत्ति में जैसे छोटी छोटी आपत्तियाँ लगी रहती हैं । एक महान रोग के साथ क्षुद्र रोग पड़ जाते हैं उसी ढंग से हिंसा आदिक पापों में से किसी भी एक पाप का उद्रेक हो जाने पर उसके अविनाभावी अन्य पाप भी संग लग बैठते हैं। उस ही सिद्धान्त को ग्रंथकार स्पष्ट कर कह रहे हैं।
यस्य हिंसानृतादीनि तस्य संति परस्परं । अविनाभाववद्भावादेषामिति विदुर्बुधाः ॥१॥ ततो हिंसाव्रतं यस्य तस्य सर्वव्रतक्षतिः।
तदेव पंचधा भिन्न कांश्चित् प्रति महावतं ॥२॥ जिस जीव के हिंसा पाप प्रवर्त्त रहा है उसके अनृत, चोरी आदिक अवश्य हैं ( प्रतिज्ञा ) क्यों कि इन हिंसा आदिकों का परस्पर में अविनाभाव है ( हेतु ) जिस प्रकार कि अहिंसा आदि गुणों का परस्पर में अविनाभाव है ( दृष्टांत ) हिंसा आदि पाप क्रियाओं का अविनाभाव को रखते हुये सद्भाव रहता है इस प्रकार विद्वान पुरुष समझ रहे हैं । तिस कारण जिस पुरुष के हिंसा नाम का अव्रत है उसके सम्पूर्ण सत्य, अचौर्य, आदिक व्रतों की क्षति हो जाती है अथवा जिसके अहिंसा व्रत है उसके सम्पूर्ण सत्य आदि व्रतों की अक्षति है । कारण कि वह अकेला अहिंसा व्रत ही तो किन्हीं बिस्तर रुचि या जडमति शिष्यों के प्रति पांच प्रकार भेदों को प्राप्त हुआ महाव्रत कह दिया जाता है। अर्थात् मध्य पिंडभूत शरीर के दो हाथ, दो पैर, और मध्यपिंड यों पाँच भेद मान लिये जाते हैं । इसी प्रकर मूलभूत अहिंसा के ही अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग, ये पाँच भेद कर दिये जाते हैं। साथ ही हिंसा के भी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहगृद्धि ये पांच भेद जड़ बुद्धि विनीतों की अपेक्षा कर दिये जाते हैं ।
यस्मादतिजड़ान् वक्रजड़ांश्च विनेयान् प्रति सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणमहिंसाव्रतमेकमेव