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________________ सप्तमोऽध्याय ५८५ तीव्र इच्छाओं के संस्कार आदि व्यापार करना मूर्च्छा है जो कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पयत जीवों के परिग्रह संज्ञा पायी जाती है। यहाँ कोई वैद्यक विषय की छटा दिखा रहा आक्षेप करता है कि जिस जीव के वात, पित्त, और कफ का विकार हो गया है उसके मूर्छा पायी जाती है । उन्माद, मृगी, सन्निपात आदि रोगों में मूर्छा हो जाती है " क्षीणस्य बहुदोषस्य विरुद्धाहारसेविनः । वेगाघातादभिघाताद्धीनसत्त्वस्य वा पुनः ॥ करणायतनेषूत्राः बाह्येष्वाभ्यंतरेषु च । निविशन्ते यदा दोषास्तदा मूर्छन्ति मानवाः ॥ संज्ञावहासु नाडीषु पिहितास्वनिलादिभिः । तमोऽभ्युपैति सहसा सुखदुःखव्यपोहकृत् || सुखदुःखव्यपोहाच्च नरः पतति काष्ठवत् । मोहो मूर्च्छति तामाहुः षडुविधा सा प्रकीर्तिता ।। वातादिभिः शोणितेन मद्येन च विषेण च । षट्स्वप्येतासु पित्तन्तु प्रभुत्वेनावतिष्ठते” ॥ इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि मूर्छा में विशेष कर दिया गया है “मूर्छा मोहसमुद्दाययोः” इस धातु से बना मूर्छा शब्द सामान्य रूप मोह रहा है । किन्तु यहां प्रकरण अनुसार बाह्य अभ्यंतर परिग्रहों के रक्षण, वर्द्धन, आदि में हुये "ममेदभाव" को मूर्छा कहा गया है। सामान्य वाचक शब्द अवसर अनुसार विशेष अर्थों में प्रयुक्त कर लिये जाते हैं । यदि मूर्छा पद से वात, पित्त, कफों के विकार से उपजी मूर्छा पकड़ी जायगी ऐसी मूर्छा का तो सम्पूर्ण परिग्रहों से रहित हो रहे मुनियों में भी प्रसंग है। पूर्व संचित कर्मों के अनुसार तीरोग हो जाने पर मुनियों के भी वह वात, पित्त, कफ जन्य मूर्छा हो सकती है । किन्तु मुनि के अन्तरंग, बहिरंग परिग्रहों की अभिकांक्षा स्वरूप मूर्छा कदाचित् नहीं पायी जाती है । यदि यहां कोई यों आक्षेप करै कि यों अभिकांक्षा स्वरूप आमीय गृद्धि को यदि परिग्रह कहा जाय तो राग आदि अन्तरंग परिणाम तो परिग्रह हो जायेंगे किन्तु बहिरंग क्षेत्र, प्रासाद, आदिक चेतन अचेतन पदार्थों को परिग्रहपना नहीं हो सकने का प्रसंग आ जावेगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो प्रसंग नहीं उठाना क्योंकि मूर्छा पद करके आध्यात्मिक राग आदि परिग्रह पकड़े जाते हैं । अन्तरंग परिग्रह ही प्रधान हैं। मूर्छा के कारण होने से बाहय क्षेत्र आदि को मूर्छा का व्यपदेश कर दिया गया है जैसे कि प्राण के कारण हो रहे अन्न को प्राण कह दिया जाता है । यदि अन्तरंग में मूर्छा नहीं हैं तो बहिरंग क्षेत्र, धन, वस्त्र, आदि के होते ये भी परिग्रही नहीं है । किसी अज्ञानी जीव करके वस्त्र या कम्बल द्वारा उपसर्ग को प्राप्त हो रहे मुनि परिग्रही नहीं हैं । ध्यानारूढ़ मुनि महाराज के निकट कोई चोर यदि भूषणों का ढेर लगा दें एतावता मुनि परिग्रही नहीं बन जाते हैं । उदासीन चक्रवर्ती उतना मूर्छावान् नहीं हैं जितना कि अर्जन, रक्षण आदि की अभिकांक्षायें कर रहा स्मश्रुनवनीत परिग्रही है । अतः आध्यात्मिक यानी अन्तरंग परिग्रह के होने पर ही बहिरंग परिग्रहों को मूर्छापन का मात्र व्यवहार है । ज्ञानदर्शनचारित्रेषु प्रसंगः परिग्रहस्येति चेन्न, प्रमत्तयोगाधिकारात् । ततः सूक्तं मूर्छा परिग्रहः प्रमत्त योगादिति । यहाँ आशंका और उत्पन्न होती है कि आत्मा में पाये जा रहे राग आदि परिणामों को यदि परिग्रह कहा जायगा तब तो ज्ञान, दर्शन, और चारित्रगुणों में भी परिग्रह हो जाने का प्रसंग आवेगा । ज्ञानादिक तो बहुत अच्छे प्रकारों से आध्यात्मिक हैं। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्र से प्रमत्त योग का अधिकार चला आ रहा है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रों को धार रहे जीवों के प्रमाद योग नहीं हैं तिस कारण मूर्छा नहीं होने से ज्ञान आदि के परिग्रहपना घटित नहीं होता है। एक बात यह भी है कि आत्मा के तदात्मक स्वभाव होने के कारण ज्ञानादिक त्यागने योग्य नहीं हैं। हाँ रागादिक तो कर्मोदय के अधीन हैं अतः आत्मीयस्वभाव नहीं होने के कारण उन रागादिकों में “मेरे ये” ऐसा संकल्प स्वरूप परिग्रहपना बन जाता है यों सूत्रकारने बहुत अच्छा कहा था कि प्रमादके
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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