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श्लोक-वार्तिक
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ठहर रहे संते स्थूल प्रकाशादि कार्यों को करते हैं । अतः बौद्धों के यहाँ माना गया चित्त प्राणों का अधिष्ठायक कर्ता प्राणी नहीं हो सकता है। तथा आकृति से परिणत हुआ भूत यानी पृथिवी, जल, तेज, वायुओं का संघात भी प्राणों का कर्ता नहीं है । क्योंकि यों तो मरे हुये शरीर को भी उन प्राणों के कर्तामन का प्रसंग आजावेगा जो कि चार्वाकों को इष्ट नहीं है तिस कारण स्याद्वादी विद्वानों के यहां हो हिंसा होना ठीक बनता है । जीवित शरीर की आत्मा करके अधिष्ठित हो रहेपन के सिवाय अन्य कोई विशेष व्यवस्था नहीं है. इस बात को साधा जा चुका है। अर्थात् अधिष्ठायक कर्ता आत्मा कर के जीवित शरीर अधिष्ठित हो रहा है । जीवित हो रहे प्राणी में द्रव्यप्राण या भावप्राण संभवते हैं अतः उन प्राणों का प्रमादयोग से वियोग करना हिंसा है । यों परिणामी आत्मतत्त्व और उसके अधिष्ठित हो रहे शरीर आदि द्रव्य प्राणों तथा तत्त्वज्ञान आदि भाव प्राणों को मानने वाले स्याद्वादियों के यहाँ ही हिंसा होने की विवेचना ठीक हो सकती है। हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाफल की आलोचना किये बिना हिंसा का परित्याग नहीं हो सकता कारण कि अन्य दर्शनों में हिंसा तत्त्व ही सुघटित नहीं हो सका है, स्याद्वादियों का अभिप्रेत यह सूत्रोक्त हिंसा का लक्षण सुव्यवस्थित है इसी बात का ग्रन्थकार वार्त्तिक द्वारा निवेदन करे देते हैं।
हिंसात्र प्राणिनां प्राणव्यपरोपणमुदीरिता । प्रमत्तयोगतो नातो मुनेः संयतनात्मनः ॥१॥
प्रमाद के योग से प्राणी आत्माओं के प्राणों का वियोग कर देना इस सूत्र में हिंसा कही गयी है इस कारण संयम पालन करना जिनका आत्मस्वरूप हो रहा है ऐसे मुनि के वह हिंसा नहीं लग सकती है । मुनि महाराज के रागादिक भी नहीं हैं और प्राणों का व्यपरोपण भी नहीं है अतः हिंसा नहीं लग कर अहिंसा महाव्रत पलता रहता है ।
रागादीनामनुत्पादान्न हिंसा स्वस्मिन् परत्र वास्तु न हिंसक इति सिद्धान्ते देशना, तस्य क्वचिदपि भावद्रव्यप्राणव्यपरोपणाभावात् तद्भाव एव हिंसकत्वव्यवस्थितेः रागादीनामुत्पत्तिहिंसेति वचनात् ।।
सिद्धान्त शास्त्रों में सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार ऐसी देशना मिलती है कि स्वमें अथवा पर में रागादिकों का उत्पाद नहीं होने से हिंसा नहीं हो पाती है ऐसी व्यवस्था रहौ अतः वह हिंसक नहीं हो पाता है अथवा इस वाक्य का अर्थ यों कर लिया जाय कि समाधिमरण कर रहा जीव शरीर को त्यक्त करता है यहां अन्न जल निरोध, औषधि त्याग प्रक्रिया से भले ही स्वशरीर की हिंसा हो रही है । रत्नत्रय की रक्षा का लक्ष्य रखने वाले को अशुद्ध, अधर्म्य, उपायों से शरीर रक्षा करना अभिप्रेत नहीं है । रत्नों का पिटारा भले ही नष्ट हो जाय रत्न नहीं नष्ट होने चाहिये यों समाधिमरणार्थी जीव अपने में रागादिकों की उत्पत्ति नहीं करने से हिंसक नहीं माना जाता है; "न चात्मघातोऽस्ति वृषक्षतौ वपुरुपेक्षितुः । कषायावेशतः प्राणान् विषाद्यैहिंसतः स हि” तथा ईर्यासमिति पूर्वक गमन कर रहे मुनि के पाँवों के नीचे क्षुद्र जीव आ पड़े और मर जाय तो हिंसा नहीं है। कभी कभी वैद्य या डाक्टर के हाथों से औषधि प्रयोग या चीर, फाड़ करते हुये रोगी मर जाता है किंतु रागादिकों की उत्पत्ति न होने से वह हिंसक नहीं समझा जाता है । रागादिका उत्पाद नहीं होने से उस संयमी मुनि के द्वारा कहीं भी भावप्राण या द्रव्यप्राणों का व्यपरोपण नहीं हो सकता है । उस द्रव्य प्राण और भाव प्राण के व्यपरोपण का सद्भाव होने पर ही