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________________ सप्तमोऽध्याय ५ हिंसकपना व्यवस्थित हो रहा है क्योंकि रागद्वेष आदिकों की उत्पत्ति ही हिंसा है ऐसा शास्त्रकारों का वचन है । "रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तेति भासिया समये, तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेदि जिणेहि णिठ्ठिा।" यहाँ तक हिंसा के लक्षणघटकावयव पदों का साफल्य दिखाते हुये स्याद्वाद सिद्धान्त में ही प्राणप्राणियों का वियोग किया जाना साध दिया गया है। किं पुनरनृतमित्याह हिंसा का लक्षण निर्णीत किया उसके अनन्तर कहे गये अनृत यानी झूठ का लक्षण फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं । असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ सूत्र का अर्थ यह है कि असत् यानी अप्रशस्त वाच्यार्थों का निरूपण करना तो अनृत अर्थात् झूठ है। भावार्थ-अशोभन या स्वपर पीड़ा को करने वाले अथवा काणे को चिढ़ाते हुये काणा कहना, दिवालिये को दुःखित करने के लिये दिवालिया घोषित करना ये सब झूठ हैं। प्रमादयोग का सर्वत्र संबन्ध लगा हुआ है अतः हितशिक्षक, गुरु, माता, पिता, या राजा के अशोभन वचनो में यदि प्रमादयोग नहीं है तो वे असत्यभाषी नहीं कहे जा सकते हैं। असदिति निर्मातसत्प्रतिषेधेनार्थसंप्रत्ययप्रसंग इति कश्चित् । न वा सच्छब्दस्य प्रशंसार्थवाचित्वात् तत्प्रतिषेधे अप्रशस्ताथैगतिरित्यन्वयः। तदिह हिंसादिकमसदभिप्रेतं । अभिधानशब्दः करणाधिकरणसाधनः, ऋतं च तत्सत्यार्थे तत्प्रतिषेधादनृतं । तेनेदमुक्तं भवति प्रमत्तयोगादसदभिधानं यत्तदनृतमिति । यहाँ कोई आपेक्ष करता है कि इस सूत्र के उद्देश्यदल में असत्शब्द पड़ा हुआ है । प्रसज्य नत्र अनुसार नहीं जो सत् वह असत् है यों सम्पूर्ण ज्ञात हो रहे सत् पदार्थों का प्रतिषेध करने पर असत् शब्द करके खर विषाण आदि सर्वथा असत् हो रहे अनर्थों की प्रतीति हो जाने का अच्छा प्रसंग बन बैठेगा। ऐसी दशा में शून्यवाद का निरूपण यानी जगत् में कुछ नहीं है "सर्वशून्यं शून्य" आदिक वचन ही झूठ हो सकेंगे। यहां तक कोई कह रहा है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह अनर्थ प्रत्यय हो जाने के प्रसंग का दोष हमारे यहां नहीं आता है। क्योंकि इस सूत्र में प्रशंसा अर्थ के वाचक सत् शब्द को कहा गया है। उस प्रशस्त सत् का पर्युदास नब् अनुसार प्रतिषेधक करने पर अप्रशस्त अर्थ की ज्ञप्ति हो जाती है इस कारण अप्रशस्त अर्थ का कथन करना अनत है यों अन्वय कर दिया जाता कारण यहां हिंसा, चोर, आदिक पदार्थ असत् हुये अभिप्रेत किये गये हैं। सूत्र में पड़े हुये अभिधान शब्द की करण और अधिकरण में सिद्धि कर ली जाय जिस करके कथन किया जाय अथवा जिस में निरूपण किया जाय वह अभिधान है। भाव में भी युट किया जा सकता है। तथा ऋत जो पद है वह सत्य अर्थ में देखा गया है उस सत्यार्थ का प्रतिषेध करने से अनृत शब्द बना लिया जाय, तिस कारण उक्त सूत्र से यह तात्पर्य कह दिया जाता है कि प्रमत्तजीव के योग से जो अप्रशस्त कथन किया गया है वह अमृत है। यहाँ तक सूत्र का अर्थ कह दिया गया है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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