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सप्तमोऽध्याय के सुख, दुःख आदि फलों का अनुभव होता है इस कारण उस एक ही आत्मा में अदृष्ट का समवाय संबन्ध हो सकेगा। सम्पूर्ण आत्माओं में अदृष्ट नहीं समवेत होगा। यों वैशेषिकों के कहने पर तो पुनः हम जैन उपालंभ देंगे कि वह धर्म अधर्मों के फल का अनुभवन ही भला क्यों नहीं सम्पूर्ण आत्मा में हो जाता है ? फूल की फैली हुई सुगन्ध को सभी निकटवर्ती पुरुष सूंघ लेते हैं जब कि अनेक आत्मायें एक स्थान पर डट रही हैं । सभी आत्माओं से अदृष्ट और उसका फलानुभवन सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ है तो एक ही आत्मा उस अदृष्ट सुख दुःख फल का अधिपति नहीं हो सकता है। इस पर वैशेषिक यदि यों समाधान करें कि सम्पूर्ण आत्माओं के शरीरों में अदृष्ट के फल का अनुभव नहीं हुआ है । एक ही आत्मा के शरीर में सुख दुःख अनुभवा गया है अतः एक ही नियत आत्मा में धर्माधर्म फलानुभव, एवं अनुभव नियामक समवाय, और समवाय के वश हो रहा नियत अदृष्ट तथा अदृष्ट हेतुक नियत प्राणों का संयोग बन जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कह सकते हो क्योंकि आधारभूत नींव हो रहे अन्तिम हेतु के बिगड़ जाने से आपका बना बनाया सम्पूर्ण प्रासाद गिर जाता है। शरीर भी सभी आत्माओं से भिन्न पड़ा हुआ है अतः प्रतिनियत एक ही आत्मा के स्वभावों से सम्पादित होनापन प्रकृत शरीर के भी नहीं बन पाता है। क्योंकि वह शरीर भी सम्पूर्ण आत्माओं का साधारण है। साधारण वस्तु पर सम्पूर्ण आत्माओं का समानरूप से अधिकार है अतः शरीर का नियतपना ( प्रकृत आत्माधिकृतत्व ) नहीं होने से सुख दुःखानुभवन नियत नहीं हो सका। फलानुभव के नियत हुये बिना उसी एक आत्मा में अदृष्ट का समवाय नियत नहीं हो सका और नियत समवाय नहीं होने से अदृष्ट विशेष नियमित नहीं हो सका जो कि प्राण और प्राणी के संयोग विशेष का नियामक होता। अन्तिम नींव को सुधारने के लिये , वैशेषिक यदि यों कहें कि जिस आत्म। के अदृष्ट विशेष करके जो शरीर बनाया गया है वह शरीर उसी आत्मा का होगा अन्य पड़ौसी आत्मा का नहीं। यों कहने पर तो आचार्य उलाहना देते हैं कि तब तो भेदवादियों के ऊपर उपालंभमाला आपड़ती है। शरीर के नियामक अदृष्ट को भी उस आत्मा से भिन्न होने का ही एकांत मानने पर भला किस कारण से उस अदृष्ट का प्रतिनियत आत्मा के सम्बन्धीपने करके षष्ठी विभक्तिवाला व्यवहार होगा ? बताओ। यों वहका वही पर्यनुयोग यानी समाधान आक्षेपों का प्रवत्तंन चालू रहेगा। वशोषक ने आन्तम नियामक अदृष्ट माना है। प्रारम्भ में भी अदृष्ट विशेष से सयोग विशेष की व्यवस्था करी थी किंतु अदृष्ट भी आत्मा से भिन्न ही माना गया है अतः वह अदृष्ट इस आत्मा का है ऐसा नियम कौन करै ? तत्र समवाय से नियम करोगे तो उस भिन्न पड़े हुये समवाय का नियम कौन करै ? कि इसी आत्मा में उस अदृष्ट का यह समवाय है । यदि फलानुभवन से समवाय को नियत किया जायगा तो सम्पूर्ण आत्माओं को टालकर एक ही प्रकृत आत्मा में उस भिन्न पड़े हुये फलानुभवन के स्वामिसंबन्ध को प्रतिनियति कौन करै ? प्रतिनियत शरीर में फलानुभवन के होने से अनुभव का नियम किया जायगा तो आत्माओं से सर्वथा भिन्न पड़े शरीर का ही नियतपना कौन करै ? भेदवादियों के यहाँ बड़ी कठिनता आ पड़ती है। यदि जिस आत्मा के अदृष्ट से शरीर बनाया गया है वह शरीर उस आत्मा का यों प्रतिनियत व्यवस्था करोगे तो फिर अदृष्ट विशेष के ऊपर प्रश्न उठता है कि भिन्न पड़े हुये उस अदृष्ट को ही सभी आत्मायें क्यों नहीं हड़प लेंगी। इसके लिये फिर वही समाधान और आक्षेप चलते रहेंगे कोई संतोषजनक उत्तर वैशेषिकों की ओर से नहीं हो सकता है। एक बात यह यों करते करते वैशेषिकों के ऊपर चक्रक दोष आता है। प्राणों और प्राणी का संयोग विशेष हो जाने में सब से पहिले अदृष्ट विशेष को हेतु कहा, उसका नियामक समवाय कहा, समवाय का नियामक फलानुभवन कहा, फलानुभवन का नियामक प्रतिनियत शरीर में होना कहा, शरीर का नियामक पुनः अदृष्ट विशेष कहा, और अदृष्ट विशेष का नियामक समवाय कहा इत्यादि रूप से चक्कर बंध जाता है। कारक
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