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श्लोक-वार्तिक तदन्यत्वात् ( हेतु ) शत्रु वियोगवत् ( दृष्टान्त ), इस आक्षेप कर्ता के अनुमान में पड़े हुये तदन्यत्व हेतु का इष्ट पुत्रादि वियोग करके व्यभिचार आता है । एक बात यह भी है कि प्राण और प्राणी आत्मा का बंध के प्रति एकपना है । दोनों बँध कर एकम एक रस हो रहे हैं अतः सर्वथा भेद असिद्ध है यों अन्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध भी हुआ ( बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं ),, इस कारण एकपना हो जाने से प्राणों का वियोग हो जाने पर आत्मा के दुःख के अभाव का असंभव है। शरीर वाले आत्मा को साध रहे सर्वथा भेदवादी वैशेषिक के यहाँ आत्मा के दुःखाभाव नहीं संभवता है। जिससे कि प्राणों का वियोग कर देने पर आत्मा की हिंसा न होती। अर्थात् प्राणों का व्यपरोपण हो जाने से प्राणी की हिंसा और प्राणी को दुःख उपजना तथा हिंसा से अधर्म होना सिद्ध हो जाते हैं।
एकान्तवादिनां तदनुपपत्तिः संबंधाभावात् । प्राणप्राणिनोः संयोगविशेषसंबन्ध इति चेत्, कुतस्तस्यांतरसंयोगाद्विशेषः ? तददृष्टविशेषादिति चेत्, तस्याप्यात्मनोऽन्यत्वे कुतः प्रतिनियतात्मना व्यपदेशः तत्र समवायादिति चेत्, सर्वात्मसु कस्मान्न तत्समवायः १ प्रतिनियतात्मनि धर्माधर्मयोः फलानुभवनात्तत्रैव समवायो न सर्वात्मस्विति चेत्, तदेव सर्वात्मसु किं न स्यात् ? सर्वात्मशरीरेष्वभावादिति चेन्न, शरीरस्यापि प्रतिनियतात्मस्वाभाविकत्वायोगात् सर्वात्मसाधारणत्वात् । यददृष्टविशेषेण कृतं यच्छरीरं तत्तस्यैवेति चेत्, तादृष्टस्यापि ततोऽन्यतैवेत्येकांते कुतः प्रतिनियतात्मना व्यपदेश इति स एव पर्यनुयोगश्चक्रकं च ॥
सर्वथा नित्यपन, सदा शुद्धता, सर्वगतपन, क्रिचारहितपन आदि एकांतों का पक्ष ले रहे नैयायिक, सांख्य आदि पण्डितों के यहाँ उन दुःख, मरण, जीवन, आदि की सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि आत्मा का शरीर या प्राण अथवा दुःख आदि के साथ कोई संबन्ध नहीं बनता है । यदि नैयायिक यों कहें कि वायु द्रव्य प्राण और प्राण वाले आत्मा द्रव्य का सम्बन्ध संयोग विशेष है। जैनों के यहां भी कर्म, शरीर, स्वकीयपुत्र कलत्र आदि के साथ विशेष जाति का संयोग माना ही गया है। यों कहने पर तो आचार्य पूंछते हैं कि उस संयोग की अन्य अन्तर वाले भिन्न पदार्थों के हुये संयोग की अपेक्षा किस कारण से विशेषता हो रही है ? बताओ। अर्थात् आत्मा का घट से, पुस्तक से, लेखनी से, भी संयोग हो रहा है । ऐसी दशा में प्राण के साथ हुये संयोग में भला किस कारण से विशेषता आ गयी जिस से कि प्राण का व्यपरोपण हो जाने पर प्राणी आत्मा का व्यपरोपण हो सकेगा। इसके उत्तर में यदि नैयायिक यों कहें कि उस प्राण वाले आत्मा के पुण्य, पाप, नामक अदृष्ट विशेष से संयोग की अन्य बहिरंग संयोगों की अपेक्षा विशेषता हो गयी है। यों कहने पर तो जैन उलाहना देंगे कि उस अदृष्ट को भी आत्मा से भिन्न मानने पर किस कारण से प्रतिनियत आत्मा के सम्बन्धीपने करके व्यपदेश होगा अर्थात् नैयायिकों के यहां आत्मा से जैसे प्राण भिन्न पड़े हुये हैं उसी प्रकार अदृष्ट विशेष भी भिन्न पड़ा हुआ है । अनन्तानन्त व्यापक मानी गयी आत्माओं में से किसी एक आत्मा का वह अदृष्ट नियत नहीं कहा जा सकता है । यदि वैशेषिक या नैयायिक इसके उत्तर में यों कहें कि उस नियत आत्मा ही में अदृष्ट का समवाय सम्बन्ध हो गया है इस कारण नियत आत्मा का यह नियत अदृष्ट है यों स्वस्वामिसम्बन्ध का व्यपदेश हो जायगा । इस प्रकार कहने पर तो हम जैन कटाक्ष करेंगे कि जब समवाय व्यापक और एक माना गया है तो सम्पूर्ण ही आत्माओं में किस कारण से उस अदृष्ट का समवाय नहीं हो जाता है ? बताओ। इसके उत्तर में वैशेषिक यदि यों कहे कि प्रतिनियत हो रही एक आत्मा में हो धर्म और अधर्म