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________________ सप्तमोऽध्याय ५६५ पाँच इन्द्रिय और छठे मन के निरर्गल हुये प्रचार विषयों का नहीं अवधारण कर ( को नहीं गिन कर ) अयत्नाचार पूर्वक प्रवर्ग रहा जीव प्रमत्त है। अथवा प्रमत्त का अर्थ यों कर लिया जाय कि प्रमत्त इव प्रमत्तः यों प्रमत्त शब्द में इव शब्द का अर्थ सदृशपना भीतर गर्भित हो रहा है । अर्थात् जैसे मद्य पीने वाला कार्य, अकार्य, वाच्य, अवाच्य, इष्ट, अनिष्ट आदि को नहीं जानता है उसी प्रकार जीवस्थान, योनिस्थान, स्वीय, परकीय, सुख, दुःख आदि को नहीं जान रहा कषायोदय वशीकृत जीव मदोन्मत्त के समान प्रमत्त का तीसरा अर्थ पन्द्रह प्रमादों से युक्त हो कर परिणति कर रहा जो जीव है सो प्रमत्त है। स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्र कथा, राजकथा, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षुः, श्रोत्र, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों के साथ रम रहा जीव प्रमादी कहा जाता है । सूत्र में पड़ा हुआ योग का पर्यायवाची है। युजि योगे धातु से बने हये योग शब्द का अर्थ संबंध हो जाता है। अथवा काय, वचन, मन का अवलंब लेकर हुआ आत्मप्रदेशपरिस्पंद भी योग हो सकता है। तिस कारण इस सूत्र से यह सूचित हो जाता है कि प्रमत्त का संबन्ध हो जाने से अथवा प्रमत्त जीव के काय आदि परिस्पन्दों से हुआ स्वी संबन्धी या पर सम्बन्धी प्राणियों का वियोग करना हिंसा है। . किं पुनर्व्यपरोपणं ? वियोगकरणं प्राणानां व्यपरोपणं प्राणव्यरोपपणं । प्राणग्रहणं तत्पूर्वकत्वात् प्राणिव्यपरोपणस्य । सामर्थ्यतः सिद्धेः । प्राणस्य प्राणिभ्योऽन्यत्वादधर्माभाव इति चेन्न, तदुःखोत्पादकत्वात् प्राणव्यपरोपणस्य । प्राणानां व्यपरोपणे ततः शरीरिणोऽन्यत्वाद्दुःखाभाव इति चेन्न, इष्टपुत्रकलत्रादिवियोगे तापदर्शनात्, तेनान्यत्वस्य व्यभिचारात् प्राणप्राणिनोबंधं प्रत्येकत्वाच सर्वथान्यत्वमसिद्धमिति न दुःखाभावसंभवः शरीरिणः साधयतो यतो हिंसा न स्यात् । यहाँ कोई पूछता है कि प्रमत्त योग का अर्थ समझ लिया फिर यह बताओ कि यह व्यपरोपण क्या पदार्थ है ? उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि व्यपरोपण का अर्थ वियोग करना है । पाँच इन्द्रिय प्राण, तीन बल प्राण, आयुः और श्वासोश्वास, इन प्राणों का वियोग कर देना प्राणव्यपरोपण है। यों षष्ठी तत्पुरुष समास है। प्राणों का ग्रहण इस लिये किया गया है कि प्राणी का व्यपरोपण उस प्राणव्यपरोपण होने को पूर्ववर्ती मान कर होता है । पहिले प्राणों का वियोग होता है पश्चात् प्राणी का वियोग हो जाता है यह बात बिना कहे सामर्थ्य से सिद्ध हो जाती है । जीव के प्राणों का वियोग हो जाने से इष्ट बन्धुओं के साथ उस जीव का वियोग हो जाता है अथवा आस्रव पूर्वक बंध होता है। फिर भी आस्रव और बंध का जैसे एक समय है उसी प्रकार प्राण वियोग और प्राणी वियोग का समय भेद नहीं है। यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि प्राणियों से प्राणों का जब भेद है तो प्राणों का वियोग कर देने से आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं होता है। अतः हिंसक को अधर्म नहीं लग सकेगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि प्राणों का व्यपरोपण करना उस जीव के दुःखों का उत्पादक है प्राणों का वियोग कर देने पर प्राणी जीव को महान दुःख उपजता है इस कारण दुःखोत्पादक हिंसक जीव के अधर्म हो जाने की सिद्धि हुई । पुनः कोई सर्वथा भेदवादी आक्षेप उठाता है कि शरीरधारी आत्मा जब प्राणों से सर्वथा भिन्न है तो प्राणों का व्यपरोपण होते हये भी भिन्न हो जाने के कारण उससे आत्मा को दःख चाहिये जैसे कि शरीर से मल मूत्र का वियोग हो जाने से किसी को दुःख नहीं होता है। अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहींकहना क्योंकि इष्ट हो रहे भिन्न-भिन्न पुत्र, स्त्री, धन, पशु, गृह, अधिकार, आजीविका आदि का वियोग हो जाने पर जीव के संताप हो रहा देखा जाता है अतः भिन्नत्व हेतु का तिस पुत्र आदि के वियोग करके व्यभिचार हुआ । अर्थात् प्राणव्यपरोपणं ( पक्ष ) जीवस्य न दुखहेतुः ( साध्य ) हीं होना
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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