________________
५६४
श्लोक-वार्तिक त्तिक या स्वाभाविक स्वकीय परिणति की भावना भा कर यह जीव संसार कारण या मोक्ष कारण की आराधना किया करता है । कुकर्म या सत्कर्म का छोटा सा बीज ही फल काल में महान वृक्ष हो जाता है । अनेक अर्थों में से कोई न कोई अनन्तानन्त स्वभाव वाले पदार्थ का सत्स्वरूप अर्थ भावना किया जाता है। इस कारण हम स्याद्वादियों के यहाँ वस्तुस्पर्शिनी भावना यथार्थ ही व्यवस्थित हो रही है। कुशिक्षा का स्वल्प कारण मिल जाने पर पापी जीव उस व्यसन की भावना भाते भाते एक दिन महादुर्व्यसनी हो जाता है इसी प्रकार सत् शिक्षा का स्वल्प बीज पाकर भव्य जीव शुभ भावनाओं को भाकर एक दिन चारित्रवानों में अग्रणी बन जाता है । भावनायें भावने से विद्यार्थी पाठ को अभ्यस्त कर लेता है । भावना अनुसार वक्ता अच्छी वक्तृता देता है। रागवर्धक भावनाओं के वश माता अपने पुत्र पर स्नेह करती है । जगत् की और शरीर की परिणतियां बहुत सी प्रत्यक्षगोचर हैं। उनका अवलंब लेकर सत्यार्थभावना भावने से संवेग और वैराग्य परिणाम उपजेंगे ही। हां जो भावना को परमार्थ नहीं मानते हैं उनके यहां प्रतीतियों से विरोध आवेगा । भावना के विना स्मृति नहीं हो सकती है, बालक अपनी माता को नहीं पहिचान सकेगा, पक्षी लौट कर अपने घोंसले में नहीं आ सकेगा, परीक्षायें देना असंभव हो जायगा, मुख में कोर नहीं दे सकोगे, व्याप्तिस्मरण या सकत स्मरण अनुसार हान वाल अनु आगमप्रमाण उठ जायंगे, किसी का शुभ अशुभ चिन्तन कुछ कार्यकारी नहीं होगा अतः उक्त सामान्य भावनाओं और विशेष भावनाओं को वस्तुभूत यथार्थ मानना चाहिये वास्तविक अर्थ क्रियाओं को कर रही भावनाओं पर कुचोद्यों का अवकाश नहीं है।
__ततो यथार्था अवितथसकलभावनाः प्रतिपन्नव्रतस्थैर्यहेतवस्तत्प्रतिपक्षस्वीकारनिराकरणहेतुत्वात्सम्यक् सूत्रिताः प्रतिपत्तव्याः ।
तिस कारण सत्य अर्थों का अवलंब लेकर हुयी उक्त सम्पूर्ण भावनायें यथार्थ हैं । प्रतिज्ञात किये गये अहिंसा आदि व्रतों के स्थिरपन की कारण हैं उन व्रतों के प्रतिपक्ष हो रहे हिंसा, झूठ आदि के स्वीकारों की निराकृत का हेतु होने से सूत्रकार महाराज करके भले प्रकार उक्त सूत्रों में वे भावनायें सूचित कर दी गयी हैं । यों भव्यों को विशेष भावनाओं और सामान्यभावनाओं की प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये अलं विस्तरेण ।
अथ के हिंसादयो येभ्यो विरतिव्रतमिति शंकायां हिंसां तावदाहः
अब यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि वे हिंसा आदिक कौन से हैं ? जिनसे कि विरति होना व्रत है यों सातवें अध्याय के प्रथम सूत्र द्वारा कहा गया है। इस प्रकार शंका प्रवर्तने पर सबसे प्रथम आदि में कही गयी हिंसा को लक्षण सूत्र द्वारा श्री उमास्वामी महाराज कहते हैं।
प्रमत्तयोगात् प्रारणव्यपरोपरणं हिंसा ॥१३॥
प्रमाद युक्त परिणति का योग हो जाने से स्व या पर के प्राणों का वियोग कर देना हिंसा है। अर्थात् प्रमादी जीव करके कायवाङ्मनःकर्म रूप योग से स्वकीय, परकीय, भावप्राण द्रव्यप्राणों का वियोग किया जाना हिंसा कही जाती है।
____ अनवगृहीतप्रचारविशेषः प्रमत्तः अभ्यंतरीभूतेवार्थो वा पंचदशप्रमादपरिणतो वा, योगशब्दः संबन्धपर्यायवचनः, कायवाङ्मनःकर्म वा; तेन प्रमत्तसंबंधात् प्रमत्तकायादिकर्मणो वा प्राणव्यपरोपणं हिंसेति सूत्रितं भवति ।