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सप्तमोऽध्याय
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हेतु उन घृणित पदार्थों का ज्ञान ही है। जगत् और काय में कोई भी स्वभाव आसक्त हो जाने का नहीं है । अतः जगत् तत्त्व और काय तत्त्व का समीचीन बोध हो जाने से संवेग और वैराग्य का होना अनिवार्य है । हाँ जो आत्म ज्ञान से शून्य हैं वे भले ही उक्त गुणों को प्राप्त नहीं कर सकें क्योंकि उन्हें तत्त्वज्ञान ही नहीं है। बालक ही सांप या अग्नि से खेलना चाहता है विचारशील नहीं। अतः आत्मज्ञानी जाव के इस सूत्रोक्त अनुसार तत्त्व प्रबोध पूर्वक हुई भावनाओं से संवेग और वैराग्य हो जाने का अविनाभाव है।
तत्त्वतो जगत्कायस्वभावाभावबोधवादिनां तु तद्भावनातो नाभिप्रेतार्थसिद्धिरित्याह
वास्तविक रूप से जगत् और काय के स्वभावों का अभाव मान कर विज्ञान का अद्वैत मानने वाले बौद्धों के यहां तो उन जगत् और काय के स्वभावों की भावना से अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है इसी बात को ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा कह रहे हैं।
भावना कल्पनामात्र येषामर्थानपेक्षया । तेषां नार्थस्ततोऽनिष्टकल्पनात इवेप्सितम् ॥२॥ अनन्तानन्ततत्त्वस्य कश्चिदर्थेषु भाव्यते।
सन्नेवेति यथार्थ भावना नो व्यवस्थिता ॥३॥ जिन बौद्ध पण्डितों के यहां अनित्य, अशरण आदि भावनायें या पांच व्रतों को पच्चीस विशेष भावनायें अथवा अपाय, अवद्यदर्शन और दुःखस्वरूप तथा मैत्री आदि एवं जगत् काय स्वभाव चिन्तन ये सामान्य भावनायें केवल कल्पनास्वरूप ही मानी गयीं हैं । बौद्ध समझाते हैं कि इनमें वस्तुभूत अर्थों की कोई अपेक्षा नहीं है। जैसे कहानी, किंवदन्तियां, उपन्यास, किस्सा यों ही गढ़ लिये जाते हैं इसी प्रकार जगत् के स्वभावों की भावना या काय स्वभाब का चिन्तन ये सब वस्तुस्पर्शी न होकर कोरी कल्पनायें हैं । दीन छोकरा अपने मन में राजापने की कल्पना कर लेवे या मूर्ख बालक अपने को पण्डित मान बैठे, इन्द्र नाम का बालक अपने को प्रथम स्वर्ग का अधिपति चिन्तता रहे, मिट्टी के बने हुये झोंपड़े में स्वर्णनिर्मित प्रासाद की भावना करता रहे; ऐसे निकम्मे मिथ्याज्ञानी को कोई अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। अब आचार्य कहते है कि भावना को अवस्तु विषयिणी मानने वाले उन बौद्धों के यहां उस भावना से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। जैसे कि अनिष्ट की कल्पना से ईप्सित पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती है अर्थात् मट्टी की बनी गाय से अभीष्ट दुग्ध प्राप्त नहीं होता है। यहाँ कहना यह है कि सर्वथा असत् कल्पनाओं से भले ही इष्ट प्रयोजन की प्राप्ति नहीं होय किंतु वास्तविक कल्पनाओं से इष्ट प्रयोजन सधता है जब कि उपचरित असद्भूत व्यवहार नय अनुसार मेरे पुत्र, दारा आदिक हैं, वस्त्र, अलंकार, सोना, चांदी
'मेरे है, देश, राज्य दुग मेरे, ह इत्यादिक कल्पनाय भी कथचित् वस्तुपरिणतियों को छकर हयी है। बहुरूपिया, चित्र, नाटकप्रदर्शन, बनावटी सिंह, सर्प,भूत, प्रेत आदिक की झूठी कल्पना, अपने में रोग या नशा आ जाने की भावना ये बहुभाग असत्य भावनायें भी अनेक परिणतियों को उपजा देती हैं। पांव के "हाथीपांव" रोग पर सिंह की प्रतिकृति लाभ देती है, भील मट्टी के कृत्रिम द्रोणाचार्य से धनुष विद्या पढ़ा था, “यथा कूर्मः स्वतनयान् ध्यानमात्रण तोषयेत्” कछवी अपने बच्चों को शुभभावना
व से पुष्ट करती रहती है यह बात सांग असत्य नहीं है। माता पिता गुरुजन अपने पुत्र या छात्रों को शुभभावनाओं से अलंकृत करते रहते हैं । तो वस्तुभूत परिणतियों की भित्ति पर हुई भावना तो कोरी कल्पना नहीं कही जा सकती है। प्रत्येक पदार्थ में अनन्तानन्त स्वभाव भरे हुये हैं न जाने किस नैमि