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________________ ५६२ श्लोक-वार्तिक जाने से यानी चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर स्पर्श, रस, गंध,रूप, शब्द, सुख, संकल्प, विकल्प, इन ऐन्द्रियिक विषयों से विरक्ति हो जाना विराग है। उस विराग का जो भाव है सो वैराग्य है । संवेग और वैराग्य के लिये जो होय वह संवेगवैराग्यार्थ है। चतुर्थी का अर्थ तादर्थ्य है । इस प्रकार दोनों में से प्रत्येक का दोनों के लिये होना समझ लेना चाहिये, अर्थात् जगत् के स्वभाव का चिन्तन करना संवेग के लिये और वैराग्य के लिये भी है तथैव काय के स्वभाव का चितन करना भी संवेग और वैराग्य दोनों के लिये है। वस्तुतः यही बात सर्वांग सत्य है। थोड़ी भी विचार बुद्धि को धारने वाला पुरुष जब कभी जगत् के स्वभाव को विचारेगा तो उसे संवेग हुये विना नहीं रहेगा । जो आज धनी है वह कल निधन हो जाता है । बाबा बैठे रहते हैं नाती की मृत्यु हो जाती है। कहीं शोक, कहीं रोग, क्वचित् खेद की भरमार सुनाई दे रही है । जगत् में कहीं भी सुख नहीं है, केवलज्ञानी महाराज ही अठारह दोषों से रहित हैं। देव और भोगभूमियाँ जीव भी व्यक्त या अव्यक्त रूप से क्षुधा आदि अठारह दोषों करके आक्रान्त हैं। उनमें विचारशील सम्यग्दृष्टि यही भावना भावते रहते हैं कि कब कर्म भूमि की मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर संयम धारते हुये चार आराधनाओं को प्राप्त करें। इसी प्रकार शरीर की अवस्थाओं का विचार करने पर वैराग्य ही उपजता है। जगत् पद से तीन सौ तैंतालीस घनराजू प्रमाण तीनों लोक और उसमें अनित्य, अशरण होकर वर्त्त रहे सभी परिणामी पदार्थ पकड़ लिये जाते हैं। फिर भी संसारी जीव का काय से घनिष्ठ संबन्ध है। अतः भूत, व्रती, न्याय अनुसार या सामान्य विशेष नीति से काय का पृथक् उपादान करना पड़ा है। जगत् की अनेक परिणतियों से जितना कहीं संवेग उपजता है उससे कितना ही गुना अधिक काय के स्वभाव का चिन्तन करने से वैराग्य उपजता है । सूत्रकार ने यह बहुत बढ़िया मोक्षमार्गोपयोगी अमूल्य सूत्र कहा है। इसमें अपरिमित प्रमेय भरा हुआ है “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्र के पश्चात् यदि एक ही सूत्र बनाने का विचार किया जाय तो वह सौभाग्य इस "जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थ" सूत्र को ही प्राप्त होगा । इस सूत्र में शिक्षा, उपदेश, सिद्धान्त और साधु तत्त्वों का सार एकचित्र कर दिया गया है । मोक्ष के कारण संवर तत्त्व और निर्जरा तत्त्व को यहाँ ठूस कर भर दिया गया है। केषां पुनः संवेगवैराग्याथं जगत्कायस्वभावभावने कुतो वा भवत इत्याह यहाँ कोई प्रश्न उठाता है फिर यह बताओ कि जगत् के स्वभाव की भावना और काय के स्वभाव की भावना ये दोनों किन-किन जीवों के संवेग और वैराग्य के लिये उपयुक्त होती हैं ? और यह भी बताओ कि किस कारण से ये भावनायें जीवों के होती हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वार्तिक को कहते हैं। जगत्कायस्वभावौ वा भावने भावितात्मनां । संवेगाय विरक्त्यर्थं तत्वतस्तत्प्रबोधतः ॥१॥ जिन जीवों ने आत्मा के स्वरूप का भले प्रकार चिन्तन किया है। जगत् के स्वभाव और काय के स्वभाव अथवा उनकी भावनायें करना ये उन भावित आत्मक जीवों के संवेग गुण के लिये और वैराग्य के लिये उपयोगी हो रहे हैं यह पहिले प्रश्न का उत्तर हुआ। दूसरा प्रश्न जो यह था कि किस कारण से वे उक्त प्रयोजनों को पुष्ट कर देते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वास्तविक रूप से उन जगत् और काय का बढ़िया बोध हो जाने से यानी उनके वास्तविक स्वरूपों का चिन्तन करने से संवेग और वैराग्य हो ही जाते हैं। कलहकारिणी स्त्री से या अन्यायी राजा अथवा मलमत्रों से अरुचि होने का
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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