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________________ अदृष्ट विशेषा विशेष कृतत्वा समवाया धर्माधर्मयो आना। अद फलानुमवन REDMIDRY ५६८ श्लोक-वार्दिक पक्ष या ज्ञापक पक्ष का चक्रक गर्भित अनवस्था दोष किसी भी कार्य को नहीं होने देता है। पदार्थ समझने भी नहीं देता है । तदपेक्षापेक्ष्यपेक्षितत्व निबंधनोऽनिष्टप्रसंगश्चक्रकम् । ततः सुदूरमपि गत्वा यत्रात्मनि भावादृष्टं कथंचित्तादात्म्येन स्थितं तस्य तत्कृतं द्रव्यादृष्टं पौद्गलिकं कर्म व्यपदिश्यते । तत्कृतं च शरीरं प्राणा स्मकं तद्वयपदेशमर्हति पुत्रकलत्रादिवदेवेति स्याचक्रकदोषः द्वादिनामेव प्राणव्यपरोपणे प्राणिनो व्यपरोपणं दुःखोत्पत्तेर्युक्तं न पुनरेकान्तवादिनां यौगानां सांख्यादिवत् । तिस कारण अनेकांतवाद में ही प्राणों या उनके संयोगविशेष, अदृष्ट विशेष एवं शरीर आदि की सिद्धि समुचित बनती है। नैयायिकों को बहुत दूर भी जाकर कथंचित् तादात्म्य की ही शरण लेनी पड़ेगी। अन्यथा चक्रक ग्रह या अनवस्था पिशाची से नैयायिक अपना पिंड नहीं छुड़ा सकते हैं। जिस आत्मा में मिथ्यादर्शन, अविरति, क्रोध, प्रदोष आदिक आत्मपरिणति स्वरूप भाव, पुण्य, पाप कथंचित्तदात्मकपने करके स्थित हो रहे हैं उस आत्मा के उस भाव अदृष्ट से किये गये द्रव्य अदृष्ट स्वरूप, पुद्गलोपादेय अष्टविध कर्म का स्वस्वामी व्यवहार कर दिया जाता है । तथा उपादान कारण पुद्गल से बनाये गये उस अष्टविध कर्म स्वरूप द्रव्यादृष्ट करके प्राणस्वरूप शरीर किया जाता है। जो कि उसी नियत आत्मा का शरीर है इस प्रकार षष्ठी विभक्ति अनुसार व्यवहार करने के योग्य है जैसे कि अपने पुण्य पाप अनुसार प्राप्त हुये पुत्र, स्त्री, भ्राता आदिक उस उस आत्मा के कह दिये जाते हैं । भावार्थ-भेदवादी नैयायिकों के यहाँ चक्रक दोष आता है किंतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि भाव अदृष्टों के साथ आत्मा का कथंचित् तादात्म्य संबंध मानने पर कोई दोष नहीं आता है जिस आत्मा का भाव अदृष्ट है उस अदष्ट को निमित्त पाकर संचित हआ ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक द्रव्यादृष्ट भी उसी आत्मा का कहा जावेगा और उस द्रव्यादृष्ट के उदय अनुसार बन गया शरीर प्राण, भी उसी आत्मा का समझा जायगा, पुत्र, स्त्री, आदिक भी नियत आत्मा के तभी व्यवहृत होते हैं जब कि उन पुत्रादिकों के संपादक द्रव्यादृष्ट के भी संपादक हो रहे भावादृष्ट का उस नियत आत्मा के साथ कथंचित् तादात्म्य सबंध बन रहा है आत्मा के साथ संबंध रहे पौद्गलिक द्रव्यादृष्ट का भी कथंचित् तादात्म्य हो सकता है इस तत्त्व का निर्णय “प्रमेयकमलमार्तण्ड" में समझ लिया जाता है। इस प्रकार स्याद्वादियों के यहाँ ही प्राणों का वियोग कर देने पर प्राणी आत्मा का व्यपरोपण हो जाना आत्मा को दुःख की उत्पत्ति होने से समुचित बन जाता है किंतु फिर एकांतवादी हो रहे यौग यानी नैयायिकों के यहाँ शरीरधारी आत्मा का व्यपरोपण नहीं हो सकता है जैसे कि सांख्य, बौद्ध आदि पण्डितों के यहां शरीरी का व्यपरोपण नहीं हो सकता है । यद्यपि योग दर्शन पतंजलि का बनाया हुआ न्यारा है फिर भी क्वचित् नैयायिकों को योग कह देते हैं । नैयायिक या वैशेषिकों के यहां शरीर, प्राणवायु, या दुःख को आत्मा से सर्वथा भिन्न मान रक्खा है। सांख्यों ने प्राकृतिक प्राणों को शुद्ध उदासीन आत्मा से भिन्न अभीष्ट किया है । बौद्धों के यहां तो आत्म
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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