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सप्तमोऽध्याय हिंसा से विरति, झूठ से विरति, आदि व्रतों की स्थिरता करने के लिये मेत्री, प्रमोद, करुणाभाव और मध्यस्थपना ये भावनायें कर लेने योग्य हैं। यों व्रतों की चारों भावनायें भी जान लेनी चाहिये । कृत, कारित, अनुमोदना, और मन,वचन, काय कर के दूसरों के दुःख की अनुत्पत्ति में अभिलाषा रखना मैत्री है। मुख को प्रसन्नता, नेत्रों का आह्लाद, रोमांच उठना, बार-बार स्तुति करना, नाम लेना, उपाधियों का वर्णन करना, आदि कर के व्यक्त हो रहा अन्तरंगभक्ति स्वरूप अनुराग करना तो प्रमोद है । शारीरिक मानसिक व्याधियों से पीडित हो रहे दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रह स्वरूप परिणाम ही करुणाभाव है। किसी के विषय में राग द्वेष पूर्वक पक्षपात नहीं करना माध्यस्थ्यभाव है । यों विधेय दल का व्याख्यान कर अब उद्देश्य दल का निरूपण करते हैं । सन्तानरूपेण अनादि काल से लग रहे आठ प्रकार के कर्मों के बंध की अधीनता से चारों गतियों से जो आकुलित हो रहे हैं वे सत्त्व हैं। सम्यग्ज्ञान, तपस्या, विद्वत्ता, वक्तता आदि गुणों करके प्रकर्ष प्राप्त हुये हैं वे जीव गुणाधिक हैं। तीव्र असातवेदनीय कर्म के उदय से लश को प्राप्त हो रहे जीव क्लिश्यमान हैं तथा जिन्हों ने तत्त्वार्थ के उपदेश का श्रवण और तदनुसार ग्रहण के अभ्यास से कोई भी गुण प्राप्त नहीं कर पाया है ऐसे अविनीत या अपात्र तो अविनय कहे जाते हैं । सत्त्व आदि में मैत्री आदिक भावने योग्य हैं। यों चार उद्देश्यदलों का चार विधेय दलों के साथ संख्या का अतिक्रमण नहीं कर ठीक ठीक सम्बन्ध कर लिया जाय । ये सब प्रसिद्ध हो रही भावनायें अनेकान्तसिद्धान्त का आश्रय करने पर ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आत्मक परिणाम वाले सत् पदार्थ में संभवती हैं अन्यथा नहीं। अर्थात् क्षणिकत्व पक्ष, नित्यत्व पक्ष, एकत्वपक्ष आदि एकान्तों का आग्रह करने पर भावनायें नहीं हो सकती हैं। विशेष विशेष अंशों को छोड़ कर उन्हों विषयों को भावते रहना यह कालान्तरस्थायी परिणामी आत्मा के ही संभवता है जब कि खाना, पीना, हंगना, मूतना, विवाह होना, पुत्र होना, ये लौकिक क्रियायें अथवा हिंसा,झूठ, चोरी आदि पाप क्रियायें एवं पूजा, दान, अध्यापन, जाप्य देना, धम्यध्यान ये पुण्यकर्म सब अनेकान्तवाद अनुसार ही रहे बनते हैं। तो ये विशेष भावनायें और सामान्य भावनायें भी स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार पदार्थ व्यवस्था मानने पर ही भायी जा सकती हैं। इस तत्त्व को और सूत्रोक्त को ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा कहे देते हैं।
मैत्र्यादयो विशुद्धय गाः सत्त्वादिषु यथागमं । भावनाः संभवत्यंत कान्ताश्रयणे तु ताः॥१॥ मैत्री सत्त्वेषु कर्तव्या यथा तद्वद्गुणाधिके। क्लिश्यमानेऽविनेये च सत्त्वरूपाविशेषतः ॥२॥ कारुण्यं च समस्तेषु संसारक्लेशभागिषु । माध्यस्थ्यं वीतरागाणं न क्वचिद्विनिधीयते ॥३॥ भव्यत्वं गुणमालोक्य प्रमोदोऽखिलदेहिषु ।
कर्तव्य इति तत्रायं विभागो मुख्यरूपतः ॥४॥ यावत् प्राणी और गुणाधिक जीव आदि में ये बिशुद्धि के अंग हो रही मैत्री, प्रमोद आदिक भावनाओं को शास्त्रोक्त पद्धति अनुसार भावना चाहिये। वे भावनायें अनेकान्त सिद्धान्त का आश्रय
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