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________________ ५६० श्लोक-वार्तिक करने पर तो संभवती हैं किन्तु एकान्त पक्ष का कदाग्रह करने पर नहीं सध पाती हैं। जिस प्रकार जगद्वर्ती सम्पूर्ण प्राणियों में मैत्रीभाव करना चाहिये उसी के समान जीवरूप से विशेषतायें नहीं होने के कारण गुणाधिक और क्लिश्यमान तथा अविनीत जीवों में भी मैत्री करनी चाहिये । साथ ही "ब्राह्मणवशिष्ट" न्याय अनुसार विशेषता की विवक्षा करने पर संसार संबन्धी क्लेशों के भागी हो रहे समस्त जीवों में करुणाभाव करना चाहिये । क्वचित् अविनीत पुरुषों में वीतराग पुरुषों को माध्यस्थपना रखना नहीं भूल जाना चाहिये । अथवा "क्वचित्स्यादविनीतके” यों पाठ कर लेने पर किन्हीं अविनीत प्राणियों में वीतराग व्रतियों को मध्यस्थपना भावनीय है। यह अर्थ कर लिया जाय । भव्यत्वगुण का विचार कर सम्पूर्ण प्राणियों में प्रमोदभाव करने चाहिये इस प्रकार वहाँ वहाँ मुख्यरूप से यह विभाग कर लिया जाय । ग्रन्थकार का अभिप्राय यह जचता है कि सम्पूर्ण प्राणियों में जिस प्रकार मैत्री भाव की भावना की जाती है उसी प्रकार अत्यल्प, जघन्ययुक्तानन्त, प्रमाण अभव्यों को छोड़ कर सम्पूर्ण अक्षय अनन्तानन्त जीवों में वर्त्त रहे भव्यत्व गुण का विचार कर उन सभी गुणाधिक अनन्तानन्त जीवों में प्रमोद भावना भी भायी जा सकती है, वीतरागमुनि तो अपने मारने वाले का भी उपकार ही चिंतन करते हैं कि प्राणों का ही वियोग करता है । धर्म से तो नहीं डिगाता है। ऋजु परिणामी और नीचैःवृत्ति, अनुत्सेको को धार रहा प्राणी तो दूसरे जीवों को बड़ी सुलभता से गुणाधिक समझ लेता है । व्रती विचारता है कि इन सामान्य जीवों की अपेक्षा संभवतः मेरे ही पाप कर्म अधिक होवें इसका कोई ठिकाना नहीं है । भगवान् आदीश्वर महाराज ने हजार वर्ष तपस्या की थी और महावीर स्वामी ने १२ वर्षों में ही चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया था। बाहुबली स्वामी ने मात्र एक वर्ष में और भरत चक्रवर्ती ने तो केवल कुछ अन्तर्मुहूतों में ही कैवल्य प्राप्त कर लिया था। कर्मों के जटिलबन्ध और आत्मविशुद्धि या तपस्या की शक्ति अचिन्त्य है । नरक से निकल कर तीर्थकर हो जाना तो है नारायण बलभद्र नहीं हो सकता है अतः संचित कर्मोंका कोई ठिकाना नहीं । अभव्य मुनि तपस्यायें करते रहते हैं और निकट भव्य भोगों में लवलीन देखे जाते हैं इस अपेक्षा से अपकारी या क्लिश्यमान जीव भी गुणाधिक होय यों सभी जीवों को गुणाधिक मानकर प्रमोदभावना भावने से कोई टोटा नहीं पड़ जाता है। संसार के सभी प्राणी नाना योनियों में आकुलताओं को भुगता रहे संसार क्लेश से पीड़ित हो रहे हैं अतः सम्पूर्ण क्लिश्यमान संसारी जीवों में करुणाभाव भाया जा सकता है। वीतरागमुनियों के मध्यस्थता तो अविनीतों में ही क्या सम्पूर्ण जीवों में वर्त्त रही है। रागद्वेष पूर्वक पक्षपात नहीं करना ही तो मध्यस्थता है। यह सभी जीवों के प्रति मध्यस्थता तो व्रतियों में सुलभता से घटित हो जाती है जब तक उत्तममार्दव स्वरूप परमब्रह्म सिद्ध अवस्था नहीं प्राप्त होती तब तक संसारी जीवों की अविनीतता तो कथंचित् बन ही जाती है। इस प्रकार सामान्यरूप या विशेष रूप से विचार करते हुये चारों भावनाओं से व्रती को अपना आत्मा सर्वदा संस्कारित रखना चाहिये। नवीन पाप कमों के ग्रहण की निवृत्ति में तत्पर हो रहे महाव्रत धारी जीव करके क्या इतना ही क्रियाकलाप करना लक्ष्य में रखना चाहिये ? अथवा कुछ अन्य भी सद्विचार चित्त में विचारते रहना चाहिये ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज पुनरपि अन्य भावनाओं का प्रतिपादन करने के लिये इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ जगत् का स्वभाव और काय का स्वभाव संवेग और वैराग्य के लिये है। अर्थात् पर्यायस्वरूप
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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