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________________ सप्तमोऽध्याय ५५७ है अतः हिंसादिकों से जो दुःख होगा वह तो उपजेगा ही साथ ही तादात्विक दुःख का संवेदन भी आत्मा को हो रहा है अतः सूत्रकार का हिंसादिकों को दुःखस्वरूप बताना बड़ा सुन्दर जच गया है। विद्वान् इसका परिशीलन करेंगे । धर्म से सुख होता है। इसकी अपेक्षा यों अच्छा जचता है कि ज्ञानदान, परोपकार, निश्छल व्यवहार, कषायमान्द्य, आदि धर्म सुखस्वरूप ही हैं । धर्मपालन तत्काल आनन्दस्वरूप है । आत्मा के गुणों में अभेद है । दुखमेवेति कारणे कार्योपचारो अन्नप्राणवत् कारणकारणे वा धनप्राणवत् । दुःखस्य कारणं व्रतं हिंसादिकमपाय हेतुत्वादिहैव दुःखमित्युपचर्यते, कारणे कारणं वा तदवयहेतुत्वात् तस्य च दुःखफलत्वात् । तत्परत्र भावनामात्मसाक्षिकं । जब कि असातावेदनीयकर्म के उदय से किया गया खेदपरिणाम तो दुःख है और हिंसा करना, झूठ बोलना आदिक आत्मा के पुरुषार्थजन्य क्रिया विशेष हैं ऐसी दशा वे हिंसादिक भला दुःखस्वरूप ही कैसे हो सकते हैं ? बताओ। ऐसा आक्षेप प्रवर्तने पर ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि "दुखमेव " यों कथन तो कारण में कार्य का उपचार कर किया गया है। जैसे कि "अन्नं वै प्राणाः" अन्न ही निश्चय से प्राण हैं यहाँ प्राण के सहकारी कारण हो रहे अन्न में प्राणत्व का उपचार कर सामानाधिकरण्य हो रहा है। इसी प्रकार दुःख के कारण हो रहे हिंसा आदिक क्रियाओं में दुःख ही हैं यह उपचार किया गया समझ लेना चाहिये। जिस प्रकार कि "धनं प्राणाः" धन हो प्राण हैं यहाँ प्राण का कारण अन्न और अन्न प्राप्ति का उपाय धन है । अथवा अन्य भी अर्थ क्रियाओं के साधक अर्थों की प्राप्ति धन से ही होती है यों प्राण के कारण के कारण धन को प्राण कह दिया जाता है । तिसी प्रकार हिंसा आदिक पापक्रियायें तो असद्वेद्य के कारण आस्रावक कारण हैं और असद्वेद्यकर्म पुनः दुःख का कारण है यों दुःख के कारण हो रहे असद्वेद्य कर्म के कारण हिंसादिकों को दुःखस्वरूप ही उपचार से कह दिया है । दुःख के कारण हिंसा आदिक अव्रत हैं क्योंकि वे इस लोक में ही (परलोकमें तो अवश्य ही होवेंगे) अपाय के हेतु होने से दुःखस्वरूप यों उपचार को प्राप्त हो जाते हैं । कारण में जो कारण हो रहा है वह अवद्य के हेतु का हेतु होने से तद्रपेण उपचार को प्राप्त हो जाता है और उसका फल दुःख होने से वहाँ तत्पना आरोपित कर दिया जाता है। भावार्थपूर्व सूत्र अनुसार इस जन्म में अपाय का कारण होने से हिंसादिकों को दुःख कहना कारण में कार्यपन का उपचार है । ये हिंसादिक दुःख स्वरूप ही हैं उस भावना को दूसरों में अपना साक्षी देते हुये भावना चाहिये अर्थात् मारना, पीड़ा देना जैसे मुझ को अप्रिय हैं तिसी प्रकार सर्व जीवों का अप्रिय हैं । मिथ्याभाषण, बहुभाषण आदिक वचन सुनने से जैसे मेरे को अतितीव्र दुःख उपजता है इसी प्रकार सब जीवों को दुःख उपजेगा अतः हम किसी के प्रति मिथ्याभाषण न करें । मेरे इष्ट द्रव्य के वियोग में जैसे मुझको आपत्ति आजाती है उसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणियों को अभीष्ट द्रव्य की चोरी करने से विपत्ति आती है । दूसरे के द्वारा मेरे स्त्रीजनों का तिरस्कार हो जाने पर जैसे मुझे तीव्र मानसिक पीडा उत्पन्न होती है उसी प्रकार दूसरे की स्त्रियों के साथ काम चेष्टा करने पर दूसरों को अतीव संक्लेश उपजता है । तथा मुझे परिग्रह की प्राप्ति या प्राप्त के विनाश हो जाने पर जैसे आकांक्षा, रक्षा करना, शोक आदि से उपजे हुये दुःख होते हैं तिसी प्रकार सर्व प्राणियों को होते हैं। यों हिंसा आदिकों में दुःखस्वरूप की सामान्य भावना को भावते, भावते, जीव की उन पापों से पूर्ण विरक्ति हो जाती है । ननु चाब्रह्मकर्मामुत्र दुःखमात्मसाक्षिकं तद्धि स्पर्शसुखमेवेति चेन्न, तत्र स्पर्शसुखवेदनाप्रतीकारत्वात् दुःखानुषक्तत्वाच्च दुःखत्वोपपत्तेः । एतदेवाह -
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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