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________________ ५५६ श्लोक वार्तिक निन्दा होती है अतः चोरी करने से विराम ले लेना चाहिये । तथैव कुशील पुरुष यहां वध, बन्धन, मारपीट, कुवचन सहना आदि दुःखों को प्राप्त करता है, सबसे बैर बांधकर लिंग छेदन, जनहरण आदि अपायों को प्राप्त करता है । और मरकर नरकादि कुगतियों में जाता है पुण्य कर्मों को नहीं कर सकता है, निंदित होता है अतः अब्रह्म पाप से विरति करना आत्मा का हित है। तथा परिग्रह प्रेमी जीव चोर, डाकू आदि कुशब्दों करके त्रास प्राप्त करने योग्य होता है। धन के अर्जन, रक्षण में अनेक दुःखों को उठाता है, सन्तोष नहीं करता है, लोभपीडित होकर मरता है, दुर्गति को प्राप्त होता है लोभी, कंजूस, मक्खी - चूस, आदि निन्दाओं का पात्र बनता है। अतः परिग्रह से विरति हो करना श्रेष्ठ है । ऐसी भावनायें भावने से सामान्यरूप से सभी व्रतों में जीव की स्थिरता होती है । शुभ भावनायें ही सच्चारित्र की प्राण हैं। अभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशकोपायः भयं वा अवघं च गां तयोर्दर्शनमवलोक प्रत्येकं हिंसादिषु भावयितव्यं । कथमित्याह - जिन क्रियाओं से अनेक सांसारिक अभ्युदय और संसारातीत मोक्ष इन प्रयोजनों की सिद्धि हो सकती है उन श्रेष्ठ क्रियाओं का विनाश करने वाला जो प्रयोग है वह अपाय कहा जाता है अथवा इह लोक संबन्धी आदि सात भय भी अपाय हो सकते हैं और अवध का अर्थ निंद्यनीय है उन अवद्य और अपायों का दर्शन यानी अवलोकन या परामर्श करना प्रत्येक हिंसादि पापों में भावना करने योग्य है । कोई पूंछता है कि किस प्रकार उक्त सामान्य भावनाओं को भावना चाहिये ? बताओ। ऐसा प्रश्न प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर कहते हैं । 1 हिंसनादिविहापायदर्शनं भावना यथा । मयामुत्र तथावद्यदर्शनं प्रविधीयते ॥ १ ॥ जिस प्रकार हिंसा, झूठ आदि पापों में इस जन्म में अनेक अपाय होना दीख रहा है उसी प्रकार परलोक में अनेक अवद्य होना देखे जा रहे हैं । यों मुझ करके भावना भले प्रकार की जा रही है । हिंसादिसकलमव्रतं दुःखमेवेति च भावनां व्रतस्थैर्यार्थमाह हिंसा, झूठ आदिक सम्पूर्ण अव्रत दुःख स्वरूप ही हैं इस निराली भावना की व्रतों की स्थिरता कराने के लिये सूत्रकार कंठोक्त कहते हैं । दुखमेव वा ॥१०॥ हिंसा, आदिक पांचों पाप दुःख स्वरूप ही हैं यह भावना भी भावनी चाहिये तभी दुःखों से विरक्ति उपजेगी । भावार्थ- क्षमा या ब्रह्मचर्य से सुख उपजता है इस प्रयोग की अपेक्षा क्षमा या ब्रह्मचर्य निश्चयनयानुसार सुखस्वरूप हैं यह वचन मीठा और सत्यार्थ जच रहा है। वस्तुतः विचारा जाय तो से 'सुख होता है यों कार्यकारण भाव बनाना एक प्रकार से परमब्रह्मस्वरूप क्षमा की अवज्ञा करना है। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि दान, पूजा, संयम, तपश्चरण से सुख होता है इसकी अपेक्षा दान, पूजा आदि ही सुखस्वरूप हैं यह अभिप्राय सुन्दर है । तभी "समरसरसरंगोद्गम” होने पाता है। इसी प्रकार हिंसा करना, झूठ बोलना आदि पापचेष्टायें भी दुःखस्वरूप हैं। उस समय आत्मा को महान् दुःख उपज रहा क्षमा
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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