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________________ - सप्तमोऽध्याय ५५५ माना जायगा तो अनित्य हो जाने का प्रसंग आजावेगा। बौद्धों के यहां क्षणिकपने के एकान्त का पक्ष लेने पर भी कोई भावक नहीं होता है क्योंकि वंश रहित होकर समूलचूल विनाश को प्राप्त हो रहे पदार्थ की एक समय से ऊपर अवस्थिति ही नहीं है अतः पुनः पुनः पने करके चैतन्य संतानों का असंभव है । सन्तान भी तो उनके यहां वस्तुभूत नहीं मानी गयी है अर्थात् कितनी ही देर तक बार-बार विचार करने को भावना कहते हैं । क्षणिक विज्ञान विचारा अनेक क्षण तक ठहरता ही नहीं है। हां, अनेक स्वलक्षणों की सन्तान तो भावना कर सकती थी किन्तु क्षणिकवादी के यहां सन्तान या समुदाय वस्तुभूत नहीं माने हैं यों एकान्त नित्य और एकान्त क्षणिक पक्षों में भावना नहीं संभवती है । ततोऽनेकान्तवादिनामेव भावना युक्ता भावकस्य भव्यस्यात्मनः सिद्धेः सर्वकर्मनिर्मोक्षलक्षणस्य च निःश्रेयसस्य भाव्यस्योपपत्तेः । तदुपायभूतायाः सम्यग्दर्शनादिस्वभावविशेषात्मिकायाः सत्यभावनायाः प्रसिद्धेः । स्याद्वादिनामेव त्र्यंशपूर्णा गिरो वेदितव्याः || तिस कारण अनेकान्तवादी जैन विद्वानों के यहाँ ही भावना बनना समुचित है क्योंकि भावना करने वाले परिणामी भव्य आत्मा की सिद्धि हो रही है। और सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक छूट जाना स्वरूप मोक्ष का भाव्यपना बन रहा है तथा उस मोक्ष के उपायभूत हो रही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान आदि विशेषस्वभावस्वरूप सत्यभावना यानी पारमार्थिक भावना की प्रसिद्धि हो रही है इस कारण स्याद्वादियों के यहां ही भावक, भाव्य, भावना इन तीन अंशों से परिपूर्ण हो रही वचन पद्धतियां समझ लेनी चाहिये । जिस प्रकार नित्यानित्यात्मक परिणामी आत्मा में दुःख, शोक, दान आदि परणतियां बनती हैं। उसी प्रकार कथंचित् नित्य भव्य आत्मा ही भावनीय मोक्ष की उपाय हो रही सम्यग्दर्शन आदि स्वरूप भावनाओं को भावता है । सकलव्रतस्थैर्यार्थमित्थं च भावना कर्तव्येत्याह व्रतों की विरोधी हो रही पापक्रियाओं में भी प्रतिकूल भावनायें भावते हुये सामान्य रूप से सम्पूर्ण व्रतों की स्थिरता के लिये और भी इस प्रकार भावनायें करनी चाहिये इस अभिप्राय से प्रेरित सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं । हिसादिष्विहामुत्रापायावद्य दर्शनं ॥ ९ ॥ हिंसा आदि पापों में इस जन्म में अपाय दीखना यों भावना करनी चाहिये और भविष्य जन्मान्तरों में अवद्य देखा जाना भावने योग्य है । अर्थात् हिंसा करने वाला प्राणी इस लोक में जन समुदाय करके नित्य ही ताड़ने योग्य होता है यहां उससे वैर बांध लिया जाता है । अनेक प्रकार के वध, बन्ध क्लेशों को प्राप्त करता है, और मरकर नरकादि गतियों को पाता है, निन्दित होता है इस कारण हिंसा से विरति करना श्रेष्ठ है । तिस ही प्रकार झूठ बोलने वाले व्यक्ति की कोई श्रद्धा या विश्वास नहीं रखता है वह जिह्वाछेदन, कारागृहवास को प्राप्त करता है, झूठ बोलने करके दुःखी हो गये प्राणियों से वैर बांधकर अनेक विपत्तियों को प्राप्त करता है, मरकर दुर्गति में वास करता है अतः झूठ बोलने से विरक्ति रखना श्रेष्ठ है यह भावना रखनी चाहिये । तथा दूसरों के द्रव्य को चुराने वाला जीव सबके त्रास देने योग्य हो जाता है, यहां इस जन्म में बेंतों की मार, जेलखाना, हाथ-पांव छेदन, सर्वस्व हरण, आदि दुःखों को प्राप्त करता है, भयभीत रहता है और मरकर अशुभ गति को प्राप्त होता है, सर्वत्र उसकी
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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