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________________ ५५४ श्लोक- वार्तिक प्रत्येकमिति पंचानां व्रतानां भावना मताः । पंच पंच सदा सन्तु निःश्रेयसफलप्रदाः ॥२॥ यों उक्त प्रकार पांचों व्रतों में से प्रत्येक प्रत्येक की पांच पांच भावनायें अम्नाय अनुसार मानी जा चुकी हैं जो कि भव्य जीवों के लिये सर्वदा मोक्षफल को अच्छा देने वाली हो जाओ । यों व्रतों की सद्भावनाओं से प्रसन्न होकर महाव्रती ग्रन्थकार एक प्रकार का आशीर्वाद वचन कहते हैं । यद्यपि ग्रन्थकार सर्वदा परानुग्रह करने में ही दत्तचित्त हैं तथापि प्रमोद भावना और कृपादृष्टि से प्रेरित होकर कदाचित् विशेषतया अनुग्रह करने में दत्तावधान हो जाते हैं । किं पुनरत्र भाव्यं १ को वा भावकः १ कश्च भावनोपाय इत्याह यहाँ कोई तत्त्वान्वेषी प्रकरणानुसार प्रश्न उठाता है कि फिर यह बताओ कि यहां भावना करने योग्य भाव्य पदार्थ क्या है ? अथवा भावना करने वाला भावक कौन है ? तथा भावनायें भावना स्वरूप उपाय क्या है ? बताओ। इस प्रकार प्रश्नों के उतरने पर आचार्य महाराज अग्रिम वार्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं । भाव्यं निःश्रयसं भव्यो भावको भावना पुनः । तदुपाय इति त्र्यंशपूर्णाः स्याद्वादिनां गिरः ॥ ३॥ आत्मा की कर्मरहित अवस्था मोक्ष तो यहां भावना करने के योग्य भाव्य अर्थ है और भव्य जीव उन भावनाओं का भावक है तथा भावना तो फिर उस मोक्ष का उपाय है । इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त को जानने वाले विद्वानों की भाव्य, भावक, भावना, इन तीन अंशों से परिपूर्ण हो रही वाणियें प्रवर्त रही हैं। नहि सर्वथैकान्तवादिनां भावना भवति । नित्यस्यात्मनो भावकत्वे विरोधः, ततः प्रागभावकस्य शश्वद्भावकत्वानुषक्तेः, भावकस्य सर्वदा भावकत्वापत्तेः । तत एव प्रधानस्यापि न भावकत्वमनित्यत्वप्रसंगात्। नापि क्षणिकैकांते भावकोऽस्ति, निरन्वयविनाशिनः क्षणादूर्ध्वमवस्थानाभावात् पौनःपुन्येन चित्तसंतानानामसंभवात् सन्तानस्याप्यवस्तुत्वात् । सर्वथा नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व आदि एकान्तों का पक्ष ले रहे एकान्तवादी पंडितों के यहाँ भावनायें या उनका चिन्तन करना ही नहीं संभवता है देखिये नित्य आत्मा को भावक मानने में विरोध है । जो पहिले भावक नहीं था वह भावना करते समय भावक बने तब तो भावनायें सिद्ध हो सकती हैं । कूटस्थ नित्य तो सर्वदा एकसा ही रहता है तिस कारण पूर्व अवस्था में नहीं भावना कर रहे नित्य आत्मा के सर्वदा ही अभावक होते रहने का प्रसंग आवेगा। हां वर्तमान अवस्था में भावना कर रहे भावक आत्मा को सर्वदा पहिले पीछे भावक बने रहने की आपत्ति आवेगी। कारण दशा में ही पड़े रहो, फलप्राप्ति की अवस्था नहीं आने की है। हाँ पूर्वाकार का त्याग, उत्तर आकार का ग्रहण ओर ध्रुवरूप यों त्रितय आत्मक परिणाम वाले नित्यानित्यस्वरूप आत्मा में भावना परिणति बन सकती है तिस ही कारण से यानी सदा अभावकत्व या भावकत्व का प्रसंग आजाने से ही सांख्यों के यहां प्रकृति का भी भावकपना नहीं सध पाता है । प्रधान को पहिले भावक नहीं मानकर पुनः भावना भावते समय भावक
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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