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सप्तमोऽध्याय प्रकार भेद को प्राप्त हो रहा है यह इस सूत्र का अर्थ है । श्रावकों की आत्मा में एकदेशविशुद्धि है और मुनियों की आत्मा तो सर्वांगविशुद्ध है अतः अन्तरंगकारण अनुसार व्रत के दो भेद किये गये हैं । अब जिस प्रकार उत्तम औषध में भावनायें दी जाकर वह रोग दुःख का विनाश कर देती है उसी प्रकार भावनाओं से भावित हुये व्रत भी कर्म रोगों के विनाशक हैं जो भावनाओं के भावने में असमर्थ है वह व्रतों का समीचीन पालन नहीं कर सकता है तिस कारण एक एक व्रत की संस्कारक भावनाओं का प्रयोजन और उनकी संख्या का प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकार महाराज अगिला सूत्र कहते हैं ।
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥ उन पांचों व्रतों की स्थिरता करने के लिये एक एक व्रत की पांच-पांच भावनायें हैं। पांचों व्रतों को पच्चीस भावनायें हैं। देशान्तर को जाने वाले पुरुष को यदि कोई यों कह दे कि हमारे लिये वहाँ से सुपारी लेते आना तो वह प्रवासी पुरुष अपनी आत्मा में वैसा संस्कार जमा लेता है जिस भाबना के वश हो कर वह बरस, छह महीने पीछे भी सुपारी लाने की स्मृति रखता है । दाल में जीरे की भावना दे दी जाती है । प्राणेश्वर रस में ताम्बूल के रस की भावना दी जाती है और सन्निपातसूर्यरस में भांग के पत्तों के रस की भावना दी जाती है।
__ भावनाशब्दः कर्मसाधनः, पंच पंचेत्यत्र वीप्सायां शसः प्रसंग इति चेन्न, कारकाधिकारात् । क्रियाध्यारोपात्कारकत्वमासामिति चेन्न, विकल्पाधिकारात् । तेनैकैकस्य व्रतस्य भावनाः पंच पंच कर्तव्यास्तत्स्थिरभावार्थमित्युक्तं भवति ॥ तदेवाह
"भाव्यन्ते यास्ताः भावनाः" जो भाई जावें वे भावनायें हैं यों भावना शब्द की कर्म में प्रत्यय कर सिद्धि कर ली जाय । यहां कोई शंका उठाता है कि इस सूत्र में पंच पंच ऐसी विवक्षा करने पर वीप्सा में शस प्रत्यय हो जाने का प्रसंग आता है। शस् प्रत्यय कर देने से पंचशः प्रयोग हो जाने में लाघव भी है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि शस के विधायक सूत्र में कारक का अधिकार चला आ रहा है यहाँ कारकपना नहीं है अतः शस् प्रत्यय नहीं हुआ। यदि पुनः कोई आक्षेप करै कि "पंच पंच भावयेत्” यों भावयेत् क्रिया का अध्यारोप हो जाने से इन भावनाओं को कारकपना प्राप्त हो जायगा, "क्रियान्वितत्वं कारकत्वं" । ग्रन्थकार कहते है कि यह तो ठीक नहीं क्योंकि वहाँ वि का अधिकार चला आ रहा है । वा शब्द की अनुवृत्ति है । अतः शस नहीं होता है । तिस कारण एक-एक ब्रत की पाँच-पाँच भावनायें उन व्रतों के स्थिर हो जाने के लिये करनी चाहिये । यह अभिप्राय इस सूत्र का कहा जा चुका हो जाता है । उस ही बात को ग्रन्थकार वात्तिक द्वारा कहते हैं।
तत्स्थैर्यार्थं विधातव्या भावनाः पंच पंच तु ।
तदस्थैर्ये यतीनां हि संभाव्यो नोत्तरो गुणः॥१॥ उन ब्रतों की स्थिरता करने के लिये पाँच-पाँच भावनायें तो अवश्य करनी ( भावनी ) चाहिये । कारण कि उन व्रतों में स्थिरता नहीं होने पर मुनि महाराजों के उत्तर गुणों की प्राप्ति की संभावना नहीं हो सकती है। यह निश्चय समझियेगा।
अथाद्यस्य व्रतस्य पंच भावनाः कथ्यन्ते;