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श्लोक-वार्तिक हिंसादिकों से एकदेश से विरति हो जाना अणुव्रत है और सम्पूर्ण रूप से हिंसादि पापों से विराम ले लेना महाव्रत है । अर्थात् गृहस्थों का व्रत अणुव्रत है और मुनियों का व्रत महाव्रत है।
कुतश्चिद्दिश्यत इति देशः, सरत्यशेषानवयवानिति सर्व, ततो देशसर्वतो हिंसादिभ्यो विरती अणुमहती व्रते भवत इति सूत्रार्थः कथं व्रते इति ? पूर्वसूत्रस्यानुवृत्तेरर्थवशाद्विभक्ति विपरिणामेनाभिसंबंधोपपत्तेः । तत इदमुच्यते
किसी न किसी अवयव से जो प्रदेशित कर दिया जाता है इस कारण वह अवयवी का एक टुकड़ा देश कहा जाता है । यह देश शब्द की निरुक्ति है । सम्पूर्ण अवयवों को व्याप्त कर जो गमन करता है वह पूरा अवयवी इस कारण सर्व कहा जाता है । यों "दिश" धातु से देश और "मृ" गतौ धातु से सर्व शब्द की व्युत्पत्ति कर दी गयी है। उन देश और सर्वरूप से जो हिंसादि पापों से विरतियाँ हैं वे अणुव्रत
और महाव्रत हो जाते हैं इस प्रकार उक्त सूत्र का अर्थ है । अणु च महच्च, इति अणुमहती यों विग्रह कर द्विवचन के साथ अनुवृत्ति किये गये व्रत शब्द के द्विवचन "व्रते" लगा दिया जाता है। यहाँ कोई पूँछता है कि पहिले सूत्र में तो "व्रतं" एकवचन है उसी की अनुवृत्ति आ सकती है यहाँ द्विवचन "व्रते” यह किस प्रकार अनुवृत्त कर लिया जाता है ? बताओ। आचार्य उत्तर कहते हैं कि पूर्व सूत्र के व्रत शब्द की अनुवत्ति हुयी है अर्थ के वश से विभक्ति का विपरिणाम हो जाता है इस कारण "अणुमहती” इस द्विवचन के अनुसार व्रते इस द्विवचन का विधेयदल की ओर सम्बन्ध हो जाना बन जाता है । नपुंसक लिंग माने गये व्रत शब्द के अनुसार अणु महत् शब्दों को नपुंससक लिंग कहना पड़ा साथ ही अणुमहती इस द्विवचन अनुसार व्रते यह द्विवचन करना पड़ा तिस कारण लिंग और वचन के स्वांग को धार रहे सूत्र से यह अर्थ कहा कहा जाता है कि ।
देशतोऽणुव्रतं चेह सर्वतस्तु महद्वतं।
देशसर्वविशुद्धात्मभेदात् संज्ञानिनो मतं ॥१॥ __ सम्यग्ज्ञानी पुरुष के आत्मा की एकदेश विशुद्धि और आत्मा की सर्व देश विशुद्धि के भेद से हुये यहाँ एकदेश से विरति होना अणुव्रत माना गया है और हिंसादिक पापों की सर्व देश से विरक्ति हो जाना तो महान् व्रत अभीष्ट किया गया है यह सूत्र का तात्पर्य है।
न हि मिथ्यादशो हिंसादिभ्यो विरतिव्रतं, तस्य बालतपोव्यपदेशात् सम्यग्ज्ञानव्रत एव नुस्तेभ्यो विरतिर्देशतोऽणुव्रतं सर्वतस्तेभ्यो विरतिर्महाव्रतमिति प्रत्येयं । देशसर्वविशुद्धित्वभावभेदात्तदेकमपि व्रतं द्वेधा भिद्यते इत्यर्थः॥
___ मिथ्यादृष्टि जीव की हिंसा, झूठ आदि पापों से विरक्ति हो जाना व्रत नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टियों की उस त्याग आखड़ी को बालतप शब्द करके कहा जाता है । अज्ञानी या मिथ्यादृष्टियों की तपस्या बालतप है । हां सम्यग्ज्ञान वाले ही जीव के उन हिंसादिकों से एकदेश से विरति होना अणुव्रत है और सम्पूर्णरूप से उन हिंसादिकों से विराम पा जाना महाव्रत है यों प्रतीति कर लेनी चाहिये। सम्यग्दृष्टि जीव के ही पांचवां और छठे आदि गुणस्थान होते हैं। आत्मा का एक स्वभाव तो एकदेश से विशुद्धि होना है और दसरा स्वभाव सर्व ओर से विशद्धि होना है। वह व्रत मलरूप से या सामान्यरूप से एक होता हुआ भी आत्मा की एकदेशविशुद्धि और सर्वदेशविशुद्धि इन दो भिन्न-भिन्न स्वभावों से दो