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________________ सप्तमोऽध्याय बताओ। इस प्रकर पूँछने पर ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा यों उत्तर कहते हैं । अथ पुण्यासूवः प्रोक्तः प्राग्वतं विरतिश्च तत् । हिंसादिभ्य इति ध्वस्तं गुणेभ्यो विरति तं ॥१॥ ५४७ छठे अध्याय के प्रारंभ में “शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य " इस सूत्र द्वारा जो पहिले यों ठीक-ठीक कहा गया है कि शुभ योग पुण्य का आस्रव है वह शुभ योग ही तो हिंसा, झूठ आदि पापों से विराम कर लेना स्वरूप व्रत है । इस प्रकार व्रत का लक्षण कर देने पर क्षमा, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों से विरति हो जाना व्रत है इस मंतव्य का ध्वंस कर दिया गया है । अर्थात् खारपटिक मतानुयायी हिंसा को धर्म मानते हैं "सधनं हन्यात्" वेश्यायें व्यभिचार को धर्म मानती हैं। झूठ बोलने, चोरी करने को भी कोई व्रत मानते होंगे अतः उनके मंतव्य की व्यावृत्ति के लिये गुणों से विरति को व्रत हो जाने का प्रत्याख्यान करते हुये सूत्रकार महाराज हिंसादिक से विरति होने को ही व्रत कह रहे हैं । विरतिर्ब्रतमित्युच्यमाने सम्यक्त्वादिगुणेभ्योऽपि विरतिर्ब्रतमनुषक्तं तदत्र हिंसादिभ्य इति वचनात् प्रध्वस्तं बोद्धव्यं । ततो यः पुण्यास्रवः प्रागभिहितः शुभः पुण्यस्येति वचनात् संक्षेपत इति सर्वस्तमेव प्रदर्शनार्थोऽयमध्यायस्तत्प्रपंचस्यैवात्र सूत्रितत्वादिति प्रतिपत्तव्यं ।। जो विरति है वह व्रत है । यदि इतना ही व्रत का लक्षण कह दिया जाय तो सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों से भी विराम को व्रत हो जाने का प्रसंग प्राप्त हुआ, तिस कारण यहाँ हिंसा, झूठ आदि से विरत होना इस प्रकार कथन करने से गुणों से विराम ले लेने को व्रत कह देने का भले प्रकार ध्वंस हो चुका समझ लेना चाहिये, तिस कारण “शुभः पुण्यस्य" इस सूत्र वचन से जो पुण्यास्रव पहिले छठे अध्याय में संक्षेप से कहा था उस पुण्यास्रव का ही विस्तार से प्रदर्शन कराने के लिये यह सर्व सातवाँ अध्याय है । इस अध्याय में उनतालीस सूत्रों द्वारा उस शुभास्रव के प्रपंच का ही निरूपण किया गया है । यह विश्वासपूर्वक समझ लेना चाहिये । प्रतिष्वनुकम्पा सद्वेद्यास्रव इति प्रागुक्तं, तत्र के व्रतिनो येषां व्रतेनाभिसंबन्धः १ किं तद्व्रतमिति प्रश्नेन प्रतिपादनार्थोऽयमारंभः प्रतीयताम् । उक्त पहिले सूत्र का अवतरण हुआ यों समझ लिया जाय कि व्रतियों में अनुकंपा करना सातावेदनीय कर्म का आस्रव है यों पूर्व में यानी छठे अध्याय में कहा जा चुका है। वहाँ ये प्रश्न हो सकते थे किन्तु प्रकरणान्तर हो जाने या प्रकरण बढ़ जाने के भय से प्रश्न नहीं उठाये गये थे अब छठा अध्याय सम्पूर्ण हो जाने पर प्रश्न किये जाते कि वे व्रती प्राणी कौन से हैं? जिनके कि व्रत के साथ सब ओर से संबन्ध हो रहा है। वह व्रत भी क्या है ? जिनका कि संबन्ध हो जाने पर वे व्रती हो जाते हैं । इस प्रकार मूलभूत व्रत के प्रश्न करके उत्साहित किये जाने पर सूत्रकार द्वारा प्रश्न के उत्तर को प्रतिपादन करने के लिये इस सातवें अध्याय का प्रारंभ किया जाना प्रतीत कर लीजियेगा । पाँच प्रकार के व्रतों के भेदों का परिज्ञान कराने के लिये यह अगिला सूत्र कहा जाता है । देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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