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श्लोक - वार्तिक
वस्व भी नहीं माना गया है, कार्य से कारण एक क्षण पूर्व में रहता है, गुण उपजने के प्रथमं द्रव्यं निर्गुण है । यों द्रव्य के विशेष नौ भेदों में कथंचित् भिन्न लक्षणपना वर्त रहा है, अतः व्यभिचार दोष तदवस्थ है, व्यभिचार की निवृत्ति के लिये यदि वैशेषिक द्रव्यों की विशेष व्यक्तियों को स्वतंत्र तव रूप से न्यारे न्यारे पदार्थ स्वीकार करेंगे तब तो गुरण के रूप, रसादि, व्यक्तियों को या कर्म के उत्क्षेपण, अपक्षेपण आदि व्यक्तियों को एवं पर जाति, अपर - जाति, इन सामान्य व्यक्तियों अथवा अनन्त विशेष व्यक्तियों को भी स्वतंत्र तत्त्व रूप से पदार्थान्तर पने का प्रसंग प्राप्त होगा, ऐसा होने पर छहों भाव पदार्थ होने का नियम भला कैसे ठहर सकता है ? सैकड़ों या अनन्ते मूलतत्व बन बैठेंगे ।
द्रव्यत्वप्रतीति मात्र द्रव्यलक्षणं सकलद्रव्य व्यक्तीनामभिन्न तस्य कर्माणि मनागध्यभावात् सर्वथा तद्भिन्नलक्षणत्वं हेतुरिति चेत्, प्रतिवाद्यसिद्धः सद्द्रव्यलक्षणमिति कर्मण्यपि द्रव्यप्रत्ययमात्रस्य भावादन्यथा तदसवप्रसंगात् ।
वैशेषिक कहते हैं, कि द्रव्यत्व जाति स्वरूप करके जातिमान् द्रव्य की प्रतीति होजाना केवल इतना ही द्रव्य का लक्षण तो द्रव्य के पृथिवी आदि सम्पूर्ण नौऊ व्यक्ति विशेषों के अभिन्न है उस द्रव्य के लक्षण का कर्म में कदाचित् भी सद्भाव नहीं पाया जाता है, अतः उस द्रव्य से सर्वथा भिन्न लक्षणपना हेतु ठीक है, क्रिया में वर्त्तं रहा हेतु द्रव्य से पदार्थान्तरपने को साध देगा, यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं, कि कथंचित् भिन्न लक्षरणत्व हेतु में व्यभिचार दोष दिया जा चुका है, हां सर्वथा भिन्नलक्षणत्व हेतु को कहो तो प्रतिवादी विद्वान जैनों के प्रति प्रसिद्ध है। पक्ष में हेतु नहीं ठहरता है । 'सद्रव्यलक्षणं' द्रव्य का लक्षण सत् है इस प्रकार सत् स्वरूप द्रव्य की केवल प्रतीति करा देना इस द्रव्य का लक्षरण सद्भाव कर्म में भी विद्यमान है, अन्यथा यानी सत् स्वरूप द्रव्य के लक्षरण को यदि कर्म में नहीं माना जायगा तो खरविषारण के समान उस कर्म के प्रसव का प्रसंग होजावेगा, अतः " सर्वथा भिन्न लक्षरणत्व" हेतु पक्षभूत कर्म में नहीं ठहरा इस कारण तुम्हारा हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । न हि सत्तामहासामान्यमेव द्रव्यमिति स्याद्वादिनां दर्शनं तस्याः शुद्धद्रव्यत्वोपगमात् । गुणयर्ययवद्द्रव्यमित्यशुद्धद्रव्यलक्षणस्य कर्मण्यभावेपि कथंचिदेकद्रव्याभिन्नलक्षणत्वं तस्य सिद्ध्येन सर्वथा । तच्च कथंचित्पदार्थान्तरत्वं साधयेदिति विरुद्धसाधनाद्विरुद्धं परैः सर्वथा
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पदार्थांतरत्वस्य तत्र साध्यत्वात् ।
“सद्रव्य लक्षणं" इस सूत्र अनुसार सत्ता नामका महासामान्य ही द्रव्य है, यह स्याद्वादियों का सिद्धान्त नहीं है । उस महासत्ता को तो हमने शुद्ध द्रव्यपन करके स्वीकार किया है, अर्थात् - शुद्ध द्रव्यों का निरूपण सत्स्वरूप करके किया जाता है, अनेक शुद्ध द्रव्यों में प्रत्येक होकर वर्त्त रहे अनेक अस्तित्व गुणों के परसंग्रह नय द्वारा किये गये प्रापेक्षिक पिण्ड को महासत्ता कह दिया जाता है ।
१ श्रतः सूत्रकार करके कहा जाने वाला "सद्द्रव्यलक्षणं" यह शुद्धं द्रव्यों का लक्षण समझा जाय जो कि