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________________ पंचम - अध्याय ३ह करके या अन्य पदार्थ-पने करके कर्म की प्रतीति नहीं हो रही है । जैसे कि गुण, सामान्य, विशेष और समवाय स्वतंत्र होकर नहीं जाने जारहे हैं । अर्थात् - वैशेषिकों ने द्रव्य से सर्वथा भिन्न स्वीकार कर गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय इनको स्वतंत्र तत्त्व माना है, आचार्य कहते हैं, कि क्रिया अथवा गुरण, सामान्य, विशेष, समवाय भी द्रव्य की ही विशेष पर्यायें हैं । निराले तत्त्व नहीं हैं, अतः यह क्रिया का लक्षण निर्दोष किया गया है । ननु क्रिया द्रव्यात्पदार्थान्तरं तद्भिन्नलक्षणत्वाद्गुणादिवदिति । पदार्थांतरत्वेनाप्रतीयमानत्वमसिद्धमिति चेत्, कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वस्य द्रव्यव्यत्तिभिरनेकांतात् । कालादिद्रव्यव्यक्तीनां न द्रव्याद्भिन्नलक्षणन्वं क्रियावद्गुण" त्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणस्य तत्र भावादिति चेन्न, कालादिषु क्रियावत्त्ववर्जितस्य द्रव्यलक्षणस्योपगमात् पृथिव्यादिषु तदवर्जितस्य तस्य व्याख्यानात् कथंचित्तेषां द्रव्यलक्षणभेदसिद्धेः । पदार्थान्तरत्वे तु द्रव्यव्यक्तीनां गुणादिव्यक्तीनामपि पदार्था'तरत्वप्रसक्तेः कुतः षट्पदार्थनियम: ? यहां वैशेषिक स्वपक्ष का अवधारण इस प्रकार कहते हैं कि क्रिया ( पक्ष ) द्रव्य से सर्वथा भिन्न निराला पदार्थ है ( साध्य ) उस द्रव्य के लक्षण से सर्वथा भिन्न लक्षण को धार रही होने से ( हेतु ) गुरण, जाति, आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । "क्रियावद्गुणवत्समवायिकारणं" इस द्रव्य के लक्षण से " एक द्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणं" यह कर्म का लक्षण भिन्न है, अतः अन्य पदार्थपन करके नहीं प्रतीत होरहापन क्रिया में प्रसिद्ध है, यों कहने पर तो प्राचार्य कहते हैं, कि तुम वैशेषिकों के भिन्नलक्षणत्व का अर्थ यदि कथंचित् भिन्न भिन्न लक्षणवानापन है । तब तो द्रव्य की व्यक्तियों करके व्यभिचार होजायगा, देखिये द्रव्य के पृथिवी, जल, तेज, आदि ये भेद हैं, पृथिवी के भी घट, पट, पुस्तक प्रादि अनेक भेद तुम्हारे यहां माने गये हैं । इन में कथंचित् भिन्न - लक्षणपना हेतु विद्यमान है, किन्तु सर्वथा पदार्थान्तरपना साध्य नहीं है, अतः वैशेषिकों का हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है । यदि वैशेषिक यों कहें कि द्रव्य के काल, श्रात्मा, पृथिवी, आदि व्यक्ति विशेषों का लक्षण द्रव्य के लक्षण से भिन्न नहीं है जो क्रियावान् है. और गुणवान् है तथा कार्योंका समवायि कारण है, वह द्रव्य है, द्रव्य के इस लक्षण का उन काल आदिकों में सद्भाव है । अतः व्यभिचार नहीं आयगा, ग्रन्थकार कहते हैं । कि यह तो नहीं कहना क्योंकि काल आदि चार व्यापक द्रव्यों में क्रियावान्पने से रहित हो रहे द्रव्य लक्षण को स्वीकार किया गया है, और पृथिवी आदि पांच मूर्खों में उस क्रियावत्त्व को नहीं छोड कर उस पूरे द्रव्य लक्षरण को वखाना गया है । श्रतः उन द्रव्य व्यक्तियों के घटित हो रहे द्रव्य लक्षणों का कथंचित् भेद सिद्ध होजाता है । अर्थात् — करणादमुनि प्रणीत वैशेषिक दर्शन में "क्रिया गुणवत्समवायिकारणमिति" द्रव्य का लक्षण कहा है, यह पूरा लक्षरण पृथिवी, जल, तेज वायु और मन में घट जाता है, आकाश आदि • व्यापक द्रव्यों में क्रिया नहीं मानी गयी है, अतः क्रियावदव नहीं, प्रायक्षरणावच्छिन्न प्रवयवी में गुण
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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