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________________ ३८ श्लोक-वातिक पन कोहरलेनेवाले या एकता को धारने वाले प्रकाश करके व्यभिचार होजाता हैं। अर्थात-पाकाश अनेक प्रदेशवान् है, किन्तु नाना द्रव्य नहीं है, एक द्रव्य है। अगले “प्राकाशस्यानन्ताः" इस ग्रन्थ से अथवा नय युक्तियों से उस आकाश का अनेक प्रदेश सहितपना साध दिया जायगा। इस अशरहित प्राकाश की उन सम्पूर्ण मूर्त द्रव्यों के साथ संगति नहीं होसकती है। अर्थात्-वैशेषिकों ने प्राकाश को विभु द्रव्य माना है । सर्वमूर्तिमद्दव्यसंयोगित्वं विभुत्व" पृथिवी, जल, तेज, वायु, और मन इन सम्पूर्ण मूर्तिमत्द्रव्यों के साथ संयोग रखने वाला पदार्थ विभु माना गया है। यदि वैशेषिक आकाश के अशों को स्वीकार नहीं करेंगे तो निरंश अाकाश भला बम्बई, कलिकाता, यूरप, अमेरिका, स्वग. नरक आदि दूर दूर सभी स्थलों पर विराज रहे मूर्तिमान द्रव्यों के साथ कैसे संयुक्त हो सकेगा? अशों से सहित होरहा बांस या नापने का गज तो नाना देश में फैल रहे भींत या वस्त्रों पर संयुक्त होजाता है, किन्तु निरंश परमारण सकृत् भित्रदेशीय पदार्थों से चिपट नहीं सकता है, (समर्थन )। ततो न पक्षस्यानुमानेन वाधा तस्याप्रयोजकत्वात् । नापि हेतोः कालान्ययापदिटतेति धर्माधर्मयोरेक द्रव्यत्वसिद्धिः। तिस कारण हम जैनों के पक्ष की इस वैशेषिक के अनुमान करके वाधा नहीं आती है। क्योंकि वह नाना--प्रदेशत्व हेतु नाना द्रव्य--पन का प्रयोजक नहीं है, और हमारे हेतु के कालात्ययापदिष्टपना यानी वाधितहेत्वाभासपना भी नहीं है, इस कारण तीसरी वात्तिक द्वारा धर्म और अधर्मके एक द्रव्यपनकी ।सद्धि होजाती है आकाश के एक द्रव्यपन में किसी का विवाद ही नहीं है । यथा च तानि धर्माधर्माकाशान्येकद्रव्याणि तथा । जिस ही प्रकार वे धर्म, अधर्म, और श्राकाश द्रव्य रूप से एक एक हैं, उसी प्रकार और भी कुछ विशेषता को लिये हुये हैं । इस बात को समझने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्र को कहते हैं निष्क्रियाणि च ॥७॥ धर्म, अधर्म, और आकाश ये तीन द्रव्य क्रियाओं से रहित हैं, अर्थात्-धर्म, अधर्म, आकाश ये केवल एक द्रव्य ही नहीं हैं, साथ में देशसे देशान्तर होना रूप क्रिया से रहित भी हैं, जीव पुद्गलों के समान अपने स्थान को छोड़ कर परक्षेत्र में नहीं चले जाते हैं। उभयनिमित्तापेक्षः पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशांतरप्राप्तिहेतुः क्रिया, न पुनः पदार्थान्तरं तथाऽप्रतीयमानत्वात् गुणसामान्यविशेषसमवायवत् ।। अन्तरंग कारण मानीगयी क्रिया परिणमन शक्ति और वहिरंग होरहे संयोग आदि इन दोनों निमित्त कारणों की अपेक्षा रखते हुए द्रव्य का जो पर्याय विशेष देश से देशान्तर प्राप्ति का कारण है, वह क्रिया है। फिर कोई स्वतंत्र न्यारा पदार्थ क्रिया नहीं है, क्योंकि तिसप्रकार स्वतंत्र तस्व रूप
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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