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छठा-अध्याय
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स्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों का समूलचूल क्षय करने के लिये बड़ा भारी एकत्व वितर्क अवीचार नाम का पुरुषार्थ हो रहा है । कोई-कोई भोले मनुष्य कह देते हैं कि श्रेणियों में अबुद्धि पूर्वक परिणाम है। यह उनकी अक्षम्य त्रुटि है। वस्तुतः देखा जाय तो अध्ययन, सामायिक, सूक्ष्मसांपराय, क्षीण कषाय अवस्थाओं में उत्तरोत्तर बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ बढ़ रहा माना जाता है। श्रेणियाँ कोई मर्छित अवस्था या गाढशयन दशा सारिखी नहीं हैं अथवा कोई वैष्णव मतानुसार हठयोगनामक समाधि नहीं है जिसमें कि वायु चढ़ाकर महीने दो महीने तक अचेत ( बेहोश ) रहे आते हैं और नियत समय पर होश में आ जाते हैं। किन्तु श्रेणियों में आत्मा बुद्धिपूर्वक परिणाम करता सन्ता ही कर्मो का उपशम या क्षय कर देता है। उपशम सम्यक्त्व के प्रथम तीन करण होते हैं भले ही सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव उन करणों के यथाक्रम से प्रवर्तने का या उनकी शक्तियों का वेदन नहीं करै तथापि पांच या सात प्रकृतियों के उपशम कराने के उपयोगी पुरुषार्थों को वह बुद्धिपूर्वक हो करता है । आत्मा के सभी कृत्यों को कर्मोदय पर टाल देना भी ईश्वर कर्तृत्ववाद का छोटा भाई है। प्रकरण में यही कहना है कि अनादि काल से प्रारम्भ होकर तेरहवें गुणस्थान तक धारा प्रवाहरूप से आत्मा का योग नाम पुरुषार्थ प्रवर्त रहा है जो कि छद्मस्थ जीवों के सर्वदा बुद्धिगम्य नहीं है। योग नामक आस्रव प्रणालिका से यह संसारी जीव कर्मो का आकर्षण करता रहता है। कषायों की सहायता से उन कर्मों में स्थिति और अणुभाग को डालता हुआ ज्ञानावरणादि का अन्योन्य प्रवेशानुप्रवेश कर लेता है। इसी प्रकार योग द्वारा नोकर्मो का आकर्षण करता हुआ पर्याप्ति नामक पुरुषार्थ करके शरीर, वचन आदि को बना लेता है। पर्याप्ति नामक कर्म तो पर्याप्ति पुरुषार्थ की सहायता मात्र कर देता है जैसे कि श्वास लेना, निकालना इस पुरुषार्थ की सहायता उच्छ्वास नाम कर्म करता रहता है “पुग्गल कम्मादीणां कत्ता ववहार दोदु णिच्छय दो चेदण कम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं" इस श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की गाथा का ऐदम्पर्य विचार लेना चाहिये । चेतन की शक्ति ( पुरुषार्थ ) अनन्त है। चना, उरद का अंकुर चोकले को तोड़ कर बाहर निकलता है, आम्रवृक्ष का अंकुर कड़ी गुठली को फाड़ कर निकल आता है, अंकुर या वृक्ष अपनी जड़ों को कठोर मिट्टी में घुसेड़ देता है। मट्टी या पीतल के वर्तन में भरे हुये चनों के अंकुर तो बर्तन को भी फोड़ डालते हैं, बांस का अंकुर भेड़ा के चमड़े में घुस जाता है, बालक गर्भ से निकलता है, वृक्ष पानी को खींचता है यों तो जड़ भाप से लोहे का बौलर भी फट जाता है, पेट से मल, मत्र भी निकलते हैं किन्तु जड़ की शक्ति को प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं कहा जाता है चेतन के व्यापार पुरुषार्थ है। मल, मूत्र के निकलने में तो चेतन का पुरुषार्थ भी कारण है । गेंडुआ या गुबरीला कीड़ा मिट्टी में अपना गहरा घर बना लेता है, मकड़ी जाला पूरती है । भीत या किवाड़ों के निरुपद्रव भीतरी कोनों को ढूंढ़ कर वहां अपने अण्डे-बच्चों का संमूर्छन शरीर सुरक्षित रखती है, रेशमी कपड़ा, लट्ठा सारिखा बढ़िया चिकना पाल उस पर तान देती है इसमें पुरुषार्थ ही तो कारण माना जायेगा कोई पौद्गलिक कर्म तो प्रेरक निर्माता नहीं हैं। जाला बनाने वाला या जड़ें घुसेड़ देने वाला कोई कर्म एकसौ अड़तालीस प्रकृतियों में गिनाया नहीं गया है, हाँ बच्चों का जीवनोपयोगी आयुष्य या मकड़ी का स्नेह तो निमित्त मात्र पड़ सकता है। यदि उसको प्रेरक कारण भी मान लिया जाय तो उसी प्रकार समझा जायगा जैसे कि मुख्य जमादार कुलियों या मजूरों से काम लेता है काम बरने में पुरुषार्थ तो मजूरों का ही है। एकसौ अड़तालीस प्रकृतियों या इन के उत्तरोत्तर भेदों के कार्य जातिरूप से परिगणित ही हैं चाहे जिस कार्य में आत्मा के परुषार्थ का अप उचित नहीं है । संसारी जीव के सभी कार्यों में दैवकृत या पुरुषार्थकृत ये दो ही तो गतियां हो सकती