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श्लोक- वार्तिक
पुरुषार्थ हैं, पेट में जाकर उस खाद्य या पेय पदार्थ का रस, दूध, रुधिर, मांस, मेद, मज्जा, शुक्र, मल, मूत्र, पसीना बनना भी विशेष पुरुषार्थ द्वारा ही होता है भले ही उन पुरुषार्थों का जीव पूरा संवेदन नहीं कर सके । अथवा कितने ही पुरुषार्थ सर्वथा अबुद्धि पूर्वक भी होयं । बात यह है कि पढ़ना, चलना, सोना, विचारना, भोजन बनाना, पूजा करना, संयम पालना, हत्या करना, झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार, मांसभक्षण आदि भले-बुरे कार्य किये जाते हैं ये भी सब पुरुषार्थ पूर्वक हैं । पुरुषार्थ के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये जो चार नाम गिना दिये हैं वे शुभ कार्यों में प्रवृत्ति कराने के लिये उपयोगी हैं। आर्त, रौद्र, धर्म्य, शुक्ल ये चारों ध्यान पुरुषार्थ हैं। कपड़े पहनना, गाड़ी पर चढ़ना, खोदना, पानी खचना, नाचना, गाना, थप्पड़ मारना, जीना, नसेंनी पर चढ़ना, उतरना, यहाँ तक कि हंगना, मूतना, थूकना, छींकना, जम्हाई लेना ये सब क्रियायें आत्मा के यत्नविशेष से हुयीं पुरुषार्थ ही हैं। ata का चला कर बुद्धि पूर्वक या अबुद्धि पूर्वक व्यापार करना, चाहे क्रियात्मक होय या अक्रियात्मक होय सर्व पुरुषार्थ ही समझा जायगा, जो गृहस्थ त्रिवर्ग का साधन नहीं कर कुकृत्यों में फंसा हुआ है। उसको “त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य" यों उपदेश देकर धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थों की ओर झुका दिया जाता है । जो मुनि आवश्यकों या अपने चरित्र में प्रमाद करता है उसको मोक्ष पुरुषार्थ की साधना के लिये उद्युक्त कर दिया जाता है । कोई-कोई विद्वान् धर्म, अर्थ और काम को धर्म, यश और सुख कहते हुए गृहस्थ के यों तीन पुरुषार्थ स्वीकार करते हैं । उपदेश-प्रणाली भिन्न-भिन्न प्रकार की है। जो गृहस्थ आरंभ का त्यागी है या उदासीन है वह मोक्ष पुरुषार्थ के कारण होरहे संवर और निर्जरा के साधनों का अनुष्ठान करता हुआ एक प्रकार से मोक्ष पुरुषार्थ को पालता है । दान, पूजा, दया, स्वाध्याय, शुभ प्रवृत्तियां आदिक धर्म पुरुषार्थ हैं । तपः, संयम, उत्तमक्षमा, गुप्तियां, आकिंचन्य, शुक्लध्यान, ऊंची श्रेणी का धर्म्यध्यान, यथाख्यात चारित्र, सामायिक इत्यादि मोक्ष पुरुषार्थ हैं । मोक्ष
जाने वाला जीव क्षपकश्रेणी में जैसा बुद्धिपूर्वक उत्कृष्ट पुरुषार्थं शुक्लध्यान कर रहा है वैसा ही सातवें नरक जाने वाला तीव्र पापी जीव भी बुद्धिपूर्वक निकृष्ट रौद्रध्यानरूप पुरुषार्थ कर रहा है। शुभ क्रिया होने से शुक्लध्यान को मोक्ष पुरुषार्थ कह दिया जाता है और तीव्र रौद्रध्यान को त्याज्य होने के कारण पुरुषार्थ नहीं गिनाया जाता है। यहां तात्पर्य यह है कि काय, वचन, मन को बनाने वाली पौद्गलिक आहार वर्गणा, तेजो वर्गण, कार्मण वर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणाओं का आकर्षण करने वाला जीव के प्रदेशों का परिस्पन्द स्वरूप योग भी एक पुरुषार्थ विशेष है । आत्मा के सभी पुरुषार्थों का ज्ञान इस अल्प जीव को हो ही जाय ऐसा कोई नियम नहीं है । नसें बनाना, चमड़ा बनाना, वात, पित्त, कफ, लार, बाल आदि के उपयोगी पदार्थों को बनाना, शरीर में यहां-वहां भेजना, ये सब कार्य ईश्वर को नहीं मानने वाले जैनों ने आत्मा या पौद्गलिक कर्मों के ऊपर ही निर्भर हो रहे माने हैं। कारण बिना कोई कार्य हो नहीं सकता है। लाखों, करोड़ों पुरुषार्थों में से एक आध का ही हमको संवेदन हो पाता है रोने, हंसने, श्री आदि शब्द बोलने में आत्मा को भीतर क्या-क्या करना पड़ा था इस बात को समझाने लिये बड़े-बड़े यन्त्रालय, कपड़ा बनाने वाले मिल सन्मुख लाने पड़ेंगे । अनेक जीव थों कार्य करते हैं अतः यह कोई असाधारण या अभिनन्दनपत्र प्राप्त करने योग्य कार्य नहीं समझा जाता है भोजन, सामायिक, अध्ययन आदि के कतिपय स्थूल पुरुषार्थों का संवेदन यह अल्पज्ञ जीव कर लेता है । यह बात लक्ष्य में रखनी चाहिये कि उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में कर्म नोकर्म के आकर्षक पुरुषार्थ या रस, रुधिरादि बनाने के पुरुषार्थ भले ही अबुद्धि पूर्वक होवें किन्तु चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिये हुये अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, मोह उपशान्ति, क्षीण कषायता स्वरूप परणतियां तो सभी पुरुषार्थ पूर्वक हैं । बारहवें गुण