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________________ छठा-अध्याय आदिक विभक्त कर दिये जाते हैं भले ही एवकार लगा दिया जाय अथवा हेतु साध्य बनाते हुये अनुमान प्रमाण स्वरूप सूत्र मान लिये जायं किंतु अनुभागबंध की अपेक्षा नियम कर देने से कोई अतिप्रसंग नहीं आता है जिस समय ज्ञान विषय में प्रदोष किया जा रहा है उस समय ज्ञानावरण कर्म में अनुभाग शक्ति अधिक पड़ेगी शेष आरहे कर्मों में अनुभाग मंद पड़ेगा। दया, क्षमा करते समय सातवेदनीय कर्म में अनुभाग रस बहुत अधिक बंधेगा, ज्ञानावरण में मन्द रस पड़ेगा, इस प्रकार तत्प्रदोष आदिकों करके कर्मों का कर्मों की प्रकृति पड जाना स्वरूप प्रक्रतिबंध और कर्मपरमाणुओं का गणना में न्यून अधिक होना स्वरूप प्रदेशबंध के कारण अनुसार हुये सकल भी आस्रव का कोई प्रत्येक-प्रत्येक रूप से विभेद नहीं किया जा रहा है किन्तु जो कर्मों के अनुभाग का आस्रव है वह सूत्रकार महाराज ने विशिष्ट विशिष्ट होरहा उक्त सूत्रों द्वारा अच्छा कह दिया है "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि संदेहादलक्षणं" जब कि सूत्रकार महाराज का ऐसा भाव है । आस्रवतत्त्व के प्रतिरादक इस छठे अध्याय के सम्पूर्ण सूत्रोक विषय का यहाँ विशेष रूप से अनुभागबंध की अपेक्षा करके निरूपण है समुदाय रूप से सभी सूत्रों में अनुभागबंध लागू कर लिया जाय । इसी कारण से ग्रन्थकार उक्त अभिप्राय का उपसंहार अग्रिम वार्तिक द्वारा अनुभागबंध के नियम को स्वागताछन्दः करके दिखलाते हैं। यादृशाः स्वपरिणामविशेषा यस्य हेतुवशतोऽसुभृतः स्युः। तादृशान्युपपतति तमग्र स्वानुभागकर कर्मरजांसि ॥४॥ जिस प्राणी के हेतुओं के वश से जैसे-जैसे अपने परिणाम विशेष होंगे तिस-तिस प्रकार की अपने जाति के अनुभाग को करने वाली कर्मस्वरूप धूलियां उस जीव के आगे आ पड़ेगीं । अर्थात् आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप योग से प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध होते हैं किन्तु कषायों से स्थिति और अनुभाग पड़ते हैं । दशवें गुणस्थान तक कर्मों का आस्रव है आगे तो केवल सातावेदनीय का नाममात्र आस्रव है। दश गुणस्थान तक कषायें पायी जाती हैं। तत्प्रदोष आदि भी कषायों की विशेष जातियों अनुसार हुये परिणाम विशेष हैं । कषायों में पाये जारहे अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान इन प्रदोष आदि में अत्यधिक हैं । अतः अव्यभिचारी सूत्रोक्त कार्य कारण भाव बन जाता है । इति षष्ठाध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् । इस प्रकार छठे अध्याय का श्री विद्यानंद स्वामी करके विरचित प्रकरणों का ___समुदाय रूप दूसरा आह्निक समाप्त हो चुका है। इति श्रीविद्यानन्दि-आचार्यविरचिते तत्वार्थश्लोकवार्त्तिकालंकारे षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥६॥ यहाँ तक श्री विद्यानन्दी आचार्य महाराज करके विशेषतया रचे गये तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकार नाम के ग्रन्थ में छठवां अध्याय परिपूर्ण हो गया है। इस अध्याय के प्रकरणों की सूची संक्षेप से यों है कि प्रथम ही योग का परिष्कृत लक्षण कर उसी को आस्रव कहा गया है। योग आत्मा का प्रयत्नविशेष है आत्मा के बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक अनेक प्रकार के पुरुषार्थ होते रहते हैं । कौर बनाना, लील लेना, ये सब पशु, पक्षी, मनुष्यों के बुद्धि पूर्वक
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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