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श्लोक-वाविक अध्याय के सूत्रोक्तसिद्धान्त की अनुमान प्रमाण से सिद्धि कर दी जाती है। श्री अकलंकदेव महाराज ने अष्टशती में "आर्तरौद्रध्यानपरिणामः संक्लेशस्तदभावो विशुद्धिरात्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्” यों कहा है कि आतध्यान, या रौद्रध्यान, स्वरूप परिणाम संक्लेश है और धम्यध्यान, शक्लध्य वाली विशुद्धि है। यद्यपि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों के मन नहीं होने के कारण ध्यान नहीं है फिर भी तीन अनुभाव को लिये हुये कषायोदय स्थान हैं अतः वे भी संक्लेशांग समझे जाय । इसी प्रकार चौथे से सातवें गुणस्थान तक संभव रहा धर्म्यध्यान और ऊपर के गुणस्थानों में पाया जा रहा शुक्लध्यान उन मन्द कषाय वाले मिथ्यादृष्टियों के नहीं है जिनके कि आत्मविशुद्धि होने से अनेक पुण्य प्रकृतियों का आस्रव हो जाता है अतः संक्लेश या विशुद्धि का अर्थ ऐसा समझ लिया जाय जो कि अव्यभिचरित रूप से सभी पापपुण्य वाले जीवों में पाया जाय ।
तत्स्वभावाभिव्यंजकशास्त्रस्य सर्वसंवादः सिद्ध एव ।
शास्त्र तो उन पदार्थों के स्वभाव का प्रकाशक है अतः राग-द्वेष रहित होकर स्वभावों का व्याख्यान कर देने से समीचीन शास्त्रोक्त सिद्धान्त में सभी प्रवादियों का संवाद सिद्ध ही है। सफल प्रवृत्ति का जनकपना या निर्वाधपना अथवा अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति, ये सभी संवाद इस कर्मसिद्धान्त में पाये जाते हैं।
ननु तत्प्रदोषादीनां सर्वास्रवत्वानियमाभाव इति चेन्न, अनुभागविशेषनियमोपपत्तेः । प्रकृतिप्रदेशसंबंधनिबंधनो हि सर्वकर्मणां तत्प्रदोषादिभिः सकलोऽप्यास्रवो न प्रतिविभिद्यते । यस्त्वनुभागास्रवः स विशिष्टः प्रोक्तः । अतएव सकलास्रवाध्यायसूत्रितमत्र विशेषात्समुदायतोऽनुभागापेक्षयैवोपसंहृत्य दर्शयति ।
___ यहाँ बड़ा अच्छा प्रश्न उठता है कि तत्प्रदोष, निह्नव, दुःख, शोक, आदिक तो सभी कर्मों के आस्रव हेतु हो रहे हैं अतः उक्त अठारह सूत्रों द्वारा किये गये नियम का अभाव हुआ। भावार्थ-तत्प्रदोष करके जब ज्ञानावरण का आस्रव होना कहा जाता है उसी समय दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय, सातवेदनीय कर्मों का भी आस्रव हो रहा है। आगम में आयु को छोड़ कर सातों कर्म प्रतिक्षण आते रहते कहे गये हैं। दशवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण का आस्रव है । ज्ञानावरण का आस्रव होते सन्ते दूसरों का आस्रव नहीं होना चाहिये जो कि इष्ट नहीं है। इसी प्रकार भूतदया आदि कारणों द्वारा सद्वेद्य का आस्रव होने के समय, अन्य क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पाप प्रकृतियों का भी आस्रव होता है अतः आस्रव का कोई नियम नहीं रहा। आस्रव के विशेष हेतुओं का निर्देश करना व्यर्थ पड़ता है जब कि सूत्रों के उद्देश्य विधेय दलों में एवकार लगा दिया जायगा जो कि बिना कहे ही प्रत्येक षाक्य में अनायास से लग बैठता है तब तो अनेक व्यभिचार दोष सपरिकर आ जावेगें। ऐसी दशा में सूत्रोक्त सिद्धान्तों की अनुमानों से सिद्धि करना कठिन पड़ जावेगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि कर्म प्रकृतियों में फल देने की शक्ति स्वरूप अनुभाग विशेष की अपेक्षा नियम करना बन जाता है । यद्यपि तत्प्रदोष आदि करके ज्ञानावरण आदि सभी कर्म प्रकृतियों के प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, और स्थितिबंधपन का कोई नियम नहीं है तो भी अनुभागबंध के नियम का हेतु होने से तत्प्रदोष