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________________ छठा-अध्याय ५३५ प्रकार शास्त्र भी विद्यमान हो रहे ही अथों का प्रकाशक है पश्चात् बैठा ठाला कोई छोटी बुद्धिवाला गुरुष भी उनके हेतुओं की विचारणा कर सकता है । अग्नि क्यों जलाती है ? कि उसमें दाहकत्व शक्ति है अन्य में वह शक्ति नहीं है । शास्त्र के उस सत् पदार्थों के अभिव्यंजकपने की सिद्धि तो यों हो जाती है कि युगपत् सम्पूर्ण अर्थों के प्रकाशने में समर्थ हो रहे और सातिशय ज्ञान को धार रहे श्री अहंत परमेष्ठी ने उस विषय को देख कर शास्त्र के अर्थ का उपदेश दिया है अतः वक्ता के प्रामाण्य से शास्त्र का प्रमाणपना सिद्ध है। एक बात यह भी है कि इस स्वभावों के निरूपण में सभी प्रवादियों का विसंवाद नहीं है । देखिये वैशेषिक या नैयायिक पण्डित पृथ्वी, जल, तेज, वायु, द्रव्यों के स्वभाव कठिनपना, बहना, उष्णता, चलन मानते हैं । रूप का स्वभाव चक्षु से देखा जाना इष्ट किया है । संयोग और विभाग में किसी को नहीं अपेक्षा कर कारण हो जाना कर्म का स्वभाव इष्ट किया है । सांख्य पण्डितों ने सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों के स्थिति, उत्पाद, विनाश या प्रसाद, प्रवृत्ति, मोह, ये स्वभाव माने हैं "अविद्या प्रत्ययाः संस्काराः" आदि बौद्धों को भी स्वभाव मानने पड़ते हैं । अतः सभी पण्डितों का अविसंवाद हो जाने से भी उपालंभों ( उलाहनों ) की निवृत्ति हो जाती है । आम्नायानुसार सूत्रों में जैसा-जैसा शुभ अशुभ कमों के आस्रावक हेतुओं का ठीक-ठीक वर्णन किया जा चुका है उनमें सभी मीमांसक, नैयायिक आदि प्रवादियों के यहाँ भी कोई विसंवाद ही नहीं है। यहां कोई तर्क उठाता है कि उक्त कर्मों के आस्रावक हेतुओं का “कार्यकारणभाव" किस प्रमाण से नियत कर लिया जाय ? ऐसा आग्रह प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस वार्तिक को भी युक्तिसंतोषी जनों के प्रति कहे देते हैं। इति प्रत्येकमाख्यातः कर्मणामास्त्रवः शुभः। पुण्यानामशुभः पापरूपाणां शुद्धयशुद्धितः॥३॥ इस प्रकार इन अठारह सूत्रों द्वारा आठ कर्मों में से प्रत्येक-प्रत्येक के आस्रवों को कह रहे सूत्रकार महाराज ने जीवों की शुद्धि से पुण्यकर्मों का शुभ आस्रव और आत्मा की अशुद्धि से पापस्वरूप कर्मों का अशुभ आस्रव होरहा बहुत अच्छा कह दिया है. "शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः" इस देवागम की कारिका पर ग्रन्थकार श्री विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री में इस विषय का अच्छा स्पष्टीकरण कर दिया है। ज्ञानावरणादीनां कर्मणां तत्प्रदोषादयोऽशुभास्रवाः प्राणिनां संक्लेशांगत्वात् भूतव्रत्यनुकम्पादयः सद्वद्यादीनां शुभास्रवा विशुद्धयंगत्वान्यथानुपपत्तेरिति प्रमाणसिद्धत्वात् । प्राणियों के तत्प्रदोष, निह्नव, आदिक तो ( पक्ष ) पाप प्रकृति होरहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदिक कर्मों के अशुभ आस्रव हैं ( साध्य ) संक्लेश का अंग होने से ( हेतु ) अर्थात् संक्लेश के कारण और संक्लेश के कार्य अथवा संक्लेश स्वरूप को यहां संक्लेशांग पकड़ा गया है। संक्लेशांग होरहे लौकिक सुख या दुःख अथवा दोनों ही यदि स्व, पर और उभय में स्थित हो रहे हैं तो वे अवश्य पापों का आस्रव कराते हैं तथा भूत या व्रतियों में किये गये अनुकंपा, दान आदिक (पक्ष ) सवेंदनीय आदिक शुभ कर्मों के आस्रव हैं ( साध्य ) अन्यथा उनको विशुद्धि का अंगपना बन नहीं सकता है ( हेतु) विशुद्धि के कारण और विशुद्धि के कार्य तथा विशुद्धि के स्वभाव ये सब विशुद्धि के अंग हैं जो परिणाम आत्मा का विशुद्धि का अंग होगा वह अविनाभावरूप से पुण्य कर्मों का आस्रावक है। इस प्रकार छठे
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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