________________
५३४
श्लोक- वार्तिक
सूत्र
में भी इति शब्द की अनुवृत्ति है अतः पंचेन्द्रियों के विषय में किसी को विघ्न डाल देना, धर्म का व्यवच्छेद करना, पात्र को आश्रय न देना, गुह्य अंग को छेदना, आदि अनुक्त पदार्थों का संग्रह हो जाता है । जब कि इति शब्द के करने की अनुवृत्ति हो जाने से सभी सूत्रों में अनुक्तों का संग्रह हो रहा है तिस कारण विघ्न करने की जातिवाले जितने भर क्रियाविशेष हैं उन सब का यहां संग्रह कर लिया जाता है। कोई राजा, महाराजा या सेठ किसी विद्वान् को या परोपकारी धार्मिक पुरुष को यदि साधन दे रहा है ऐसी दशा में उस दाता को स्वल्प दान करने का उपदेश करना, भांजी मार देना, पात्र या धार्मिक स्थान के दोष दिखा देना, आदिक भी दानान्तराय, लाभान्तराय आदि कर्मों के आस्रव प्रसिद्ध हो जाते हैं । यह निर्णीत विषय है ।
बहुत
सोऽयं विचित्रः स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो विकारः शौंडातुरवत् प्रत्येयः ।
सो यह विचित्र प्रकार का अपने-अपने उपार्जित कर्मों के वश से आत्मा का विकार हो रहा है जो कि मदोन्मत्त पुरुष या रोगी पुरुष के समान समझ लिया जाता है । भावार्थ “ कामादि प्रभवश्चित्रः कर्मबंधानुरूपतः। तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धयतः” श्री समन्तभद्राचार्य ने धनी, निर्धन, मूर्ख, पण्डित, यशस्वी, अपयशवाला, उच्च-नीच, दुःखी-सुखी, कषायी मन्दकषाय, क्रोधी, मिध्यादृष्टी, मनुष्य, तिर्यंच आदि चित्र-विचित्र प्रकार का जीव का परिणाम हो रहा सभी पूर्वोपार्जित कर्मों अनु
व्यवस्थित किया है। यह जीव अपने योग कषायों करके अनेक प्रकार के कर्मों का समय प्रबद्ध प्रतिक्षण बांधता रहता है। जब तक वास्तविक रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती है तब तक मोह या कषाय के वश यह जीव अनेक विभाव अवस्थाओं को धारता रहता है जिस प्रकार मत्त पुरुष अपनी मिथ्या रुचि से मद, मोह विभ्रमों को करने वाली मदिरा को पीकर उस मद्य के परिपाक की अधीनता से आत्मा, मन, वचन, काय संबंधी अनेक विकारों को धारता रहता है अथवा जैसे लोलुप रोगी, अपथ्य पदार्थों को खा-पीकर उनके खोटे परिपाक अनुसार वात, पित्त, कफ के विकारों को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार यह संसारी जीव अपने प्रदोष आदि कारणों से अनुभाग रस को लेकर आये हुये कर्मों अनुसार नट के समान अनेक विभाग परणतियों को करता रहता है । यह कर्मसिद्धान्त प्रतीत कर लेने योग्य है ।
अनुपदिष्टहेतुकत्वादात्रवानियम इति चेन्न स्वभावाभिव्यंजकत्वाच्छास्त्रस्य । तत्सिद्धिरतिशयज्ञानदृष्टत्वात् सर्वाविसंवादाच्चोपालंभनिवृत्तिः । सर्वेषां प्रवादिनामविसंवाद एव शुभा - शुभास्रवहेतुषु यथोपवर्णितेषु । कुत इत्याह
यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि तत्प्रदोष, निह्नव, आदि करके ज्ञानावरण आदि कर्मों के आ हो जाने का जो सूत्रकार ने उपदेश दिया है यह बन नहीं सकता है क्योंकि इस कार्यकारणभाव में कोई हेतु का निर्देश नहीं है अतः सूत्रों अनुसार किया गया नियम नहीं बन सकेगा, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि शास्त्र तो पदार्थ के स्वभावों का मात्र प्रकट कर देने वाला है। अग्नि उष्ण है, वायु बह रही है, सूर्य प्रकाश रहा है बिना हेतु दिये भी इन वाक्यों से वस्तु के स्वभावों की अभिव्यक्ति होती है। सच बात तो यह है कि "स्वभावो तर्कगोचरः” “अचिन्त्यः कार्यकारणभावः " " वस्तु निर्विकल्पकं" यों कार्यकारणभाव में कोई तर्क का अवसर नहीं है । सिद्धान्तशास्त्र केवल स्वभावों का निरूपण कर देते हैं जिस प्रकार प्रदीप ज्ञापक घट, वस्त्र आदि के स्वभाव को प्रकट कर देता है उसी
1