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________________ ५३० श्लोक-वार्तिक उदय तो गर्भ, जन्म अवस्था से ही है जिनोंने पूर्व जन्म में ही तीर्थकरत्व को बांध लिया है उनको कुछ पहिले जन्म से ही विशेषतायें होने लग जाती हैं तेरहवें गुणस्थान में तो शतयोजन सुभिक्ष, आकाशगमन, चतुर्मुखदर्शन आदि कितने ही अतिशय उपज जाते हैं। तीर्थकरत्व का सबसे बढ़िया कार्य तो असंख्य जीवों को तत्वोपदेश देकर मोक्षमार्ग में लगा देना है। तीर्थंकर महाराज से ही धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होती है । अत एव शुभनाम्नः सामान्येनास्रवप्रतिपादनादेव तीर्थंकरत्वस्य शुभनामकर्मविशेषास्रवप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिपत्तये सूत्रमिदमुक्तमाचार्यैः । सामान्येऽन्तर्भूतस्यापि विशेषार्थिना विशेषस्यानुप्रयोगः कर्तव्य इति न्यायसद्भावात् ॥ 1 इसी कारण से अर्थात् इन संसारी जीवों के लिये महान् उपकारक होने से सर्वोत्कृष्ट तीर्थकरत्व का आस्रावक सबसे बड़ा सूत्र कहा है । यद्यपि " तद्विपरीतं शुभस्य" इस सूत्र द्वारा सामान्य करके शुभ नाम कर्म के आस्रव का प्रतिपादन कर देने से ही शुभ नाम कर्म के विशेष होरह तीर्थकरत्व कर्म आस्रव की प्रतिपत्ति हो सकती थी तथापि उस सर्वातिशायि पुण्य की प्रतिपत्ति कराने के लिये इस सूत्र को आचार्यों ने पृथक कह दिया है । सामान्य में अन्तर्भूत हो चुके विशेष का भी विशेष के अभिलाषी पुरुष करके स्वतंत्रतया उस विशेष का पुनः प्रयोग कर देना चाहिये इस प्रकार के न्याय का सद्भाव है । “ब्राह्मणवशिष्ट न्याय” अथवा “जिनेन्द्रदेवमहावीर” न्याय प्रसिद्ध हैं । इन लौकिकन्यायों अनुसार जगदुपकारी और जड़ कर्मों की भी प्रशंसा करा देने वाली तीर्थकरत्व प्रकृति का पृथक सूत्र द्वारा निरूपण करना सहृदय सूत्रकार का समुचित प्रयास है । नामकर्म के आस्रव का कथन कर चुकने पर गोत्र कर्म का आस्रव वक्तव्य हुआ तहां "दुर्जनं प्रथमं सत्कुर्यात् " इस न्याय अनुसार पहिले नीच गोत्र के आस्रव का निरूपण करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं । परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुरणच्छादनोद्भावने नीचैर्गोत्रस्य ॥२५॥ पर की निंदा करना और अपनी प्रशंसा करना तथा विद्यमान होरहे गुणों को ढक देना और नहीं विद्यमान होरहे दोषों को प्रकट करना ये सब नीचैर्गोत्र कर्म के आस्रावक कारण हैं । च दोषोद्भावनेच्छा निंदा, गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा, अनुद्भूतवृत्तिता छादनं, प्रतिबंधकाभावे प्रकाशितवृत्तितोद्भावनं, गूयते तदिति गोत्रं, नीचैरित्यधिकरणप्रधानशब्दः । तदेवं परात्मनोनिँदाप्रशंसे सदसद्गुणयोश्छादनोद्भावने नीचैर्गोत्रस्यास्त्र व इति वाक्यार्थः प्रत्येयः । कुत एतदित्याह - सत्य अथवा असत्य दोषों के प्रकट करने की इच्छा निंदा कही जाती है । सद्भूत या असद्भूत गुणों के प्रकट करने का अभिप्राय रखना प्रशंसा है। प्रसिद्ध नहीं होने देना यानी छिपाये रखने का
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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