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________________ छठा-अध्याय ५३१ व्यवहार रखना आच्छादन है। प्रतिबंधक कारण का अभाव होने पर प्रकाशित हो जाने की प्रवृत्ति करना उद्भावन है । जो व्यवहारी पुरुषों करके बोला जारहा है इस कारण वह गोत्र है । नीचैः यह शब्द अधिकरण की प्रधानता रखने वाला है। तिस कारण इस सूत्र वाक्य का अर्थ इस प्रकार समझ लिया जाय कि पर की निंदा करना और अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के सद्गुणों का तिरोभाव करना और असद्गुणों का आविर्भाव करना ये आत्मा को नीचे स्थान में करने वाले नीचैर्गोत्र कर्म के आस्रव हैं। यहाँ कोई तर्क उठाता है कि किस युक्ति से ये सूत्रोक्त उद्देश्यविधेयदल संगत होरहे हैं ? बताओ । ऐसा चोद्य उपस्थित होने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक को कहते हैं कि परनिंदादयो नीचैर्गोत्रस्यास्रवणं मतं । तेषां तदनुरूपत्वादन्यथानुपपत्तितः ॥१॥ परनिंदा आदिक तो ( पक्ष ) नीचैर्गोत्र कर्म का आस्रव कराने वाले माने गये हैं ( साध्य ) क्योंकि उन परनिंदा आदि को उस नीचगोत्र के आस्रव करने की अनुकूलता प्राप्त है। ( हेतु ) अन्यथा यानी नीचगोत्र के आस्रावक होने के बिना उस तदनुकूलता को असिद्धि है ( अविनाभाव प्रदर्शन ) यों अनुमान मुद्रा करके सूत्रोक्त सिद्धांत पुष्ट कर दिया है। नीचगोत्र का आस्रव कहा जा चुका है । अब उच्च गोत्र के आस्रव की विधि क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं। तद्विपर्ययो नीचैर्वत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ उन नीचगोत्र के आस्रावक कारणों से विपरीत होरहे अर्थात् आत्मनिंदा, परप्रशंसा, सद्गुण उद्भावन, असद्गुणछादन, तथा गुणी पुरुषों से विनय करते हुये अवनत रहना और विज्ञान आदि का मद नहीं करना ये उत्तरवर्ती यानी उच्चगोत्र के आस्रावक हेतु हैं। नीचैर्गोत्रस्यास्रवप्रतिनिर्देशार्थस्तच्छब्दः, विपर्ययोऽन्यथावृत्तिः, गुरुष्ववनतिर्नीचैर्वृत्तिः, अनहंकारतानुत्सेकः । त एते उच्चैर्गोत्रस्यास्रवा इति समुदायार्थः ॥ कथमित्याह तत् शब्द पूर्वपरामर्शक होता है। इस सूत्र में पूर्व सूत्रोक्त नीचैर्गोत्र के आस्रव कारणों का प्रतिनिर्देश करने के लिये तत् शब्द कहा गया है। अन्य प्रकार करके वृत्ति करना विपर्यय है । गुणों से उत्कृष्ट होरहे गुरुजनों में विनय करके अवनति यानी नम्र बने रहना नीचैर्वृत्ति है। विज्ञान, तपश्चर्या, चारित्र आदि गुणों करके उत्कृष्ट होरहे भी सत्पुरुष का जो विज्ञान आदि प्रयुक्त मद नहीं करना है वह अनुत्सेक कहा जाता है। ये सब लोक प्रसिद्ध होरहे कारण उच्चैर्गोत्र के आस्रव हैं। यह इस सूत्र के वाक्यों का समुदाय कर अर्थ कर दिया गया है। यहाँ कोई चोद्य उठता है कि आप जैनों की बात केवल आज्ञा सिद्ध मान ली जाय ? अथवा उक्त सूत्र के अभिमत सिद्धान्त में कोई युक्ति भी है ? यदि है तो वह किस प्रकार है ? ऐसी तर्कणा उपस्थित होने पर ग्रन्थकार इस वक्ष्यमाण वार्तिक को कहते हैं। ..
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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