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________________ छठा-अध्याय ५२९ मार्गप्रभावना ज्ञानतपोऽर्हत्पूजनादिभिः । धर्मप्रकाशनं शुद्धबौदधानां परमार्थतः॥१५॥ उत्कट ज्ञान का अभ्यास करना, उग्र तपश्चरण करना, प्रतिष्ठान पूर्वक जिनपूजन करना, विशाल चैत्यालय निर्माण, उद्भट शास्त्रार्थ, प्रकृष्ट वक्तृता, आदि विधानों करके शुद्ध हृदय वाले बुद्धिशाली पुरुषों का जो जैन धर्म का प्रकाश करना है वह परमार्थ रूप से ठोस मार्ग प्रभावना नाम की भावना है। वत्सलत्वं पुनर्वत्से धेनुवत्संप्रकीर्तितं । जैने प्रवचने सम्यकछदधानं ज्ञानवत्स्वपि ॥१६॥ जिस प्रकार सकृत्प्रसूता गाय अपने बच्चे में अकृत्रिम स्नेह करती है उसीप्रकार जिनमतानुयायी अच्छे वचन वाले विद्वानों में और समीचीन श्रद्धान ज्ञान वाले साधर्मी पुरुषों में भी जो पुनःपुनः प्रमोदबहुलवत्सलता करना है वह प्रवचनवत्सलत्व भावना अच्छी कही गयी है । अथ किमेते दर्शनविशुद्धयादयः षोडशापि समुदितास्तीर्थकरत्वसंवर्तकस्य नामकर्मणः पुण्यास्रवः प्रत्येकं वेत्यारेकायामाह अब यहां कोई शंका उठाता है कि क्या ये दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, आदि सोलहों भी भावनायें समुदित होकर तीर्थकरत्व का सम्पादन करने वाले पुण्यस्वरूप नाम कर्म के आस्रव हैं ? अथवा क्या षोडश भावनाओं में प्रत्येक भी तीर्थकरत्व पुण्यनाम कर्म का आस्रव है ? बताओ। इस प्रकार आशंका उपस्थित होने पर ग्रन्थकार उत्तर को कहते हैं। हविशुद्धयादयो नाम्नस्तीर्थकृत्त्वस्य हेतवः । समस्ता व्यस्तरूपा वा दृग्विशुद्धया समन्विताः ॥१७॥ सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् । प्रवृत्त्यातिशयादीनां निर्वर्तकमपीशितुः ॥१८॥ • समस्त यानी पूरी सोलहों अथवा व्यस्त यानी प्रत्येक भी दर्शन विशुद्धि आदिक भावनायें तीर्थकरत्व नामकर्म की हेतु हैं किन्तु वे दर्शन विशुद्धि से भले प्रकार अन्वित होनी चाहिये । “सम्मेव तित्थबन्धो" यह तीर्थकरत्व नाम कर्म का पुण्य, सम्पूर्ण दिव्यविभूतियों में सर्वोत्कृष्ट महान अतिशय को धारने वाला है और तीनों लोकों को जीत कर तीर्थकर भगवान् में शैलोक्य के अधिपतित्व को स्थापित करने वाला है। साथ ही अनन्त सामर्थ्य युक्त होरहे परमेश्वर जिनेन्द्र देव के प्रवृत्ति करके अतिशय आदिकों का सम्पादक भी वह तीर्थकरत्व पुण्य है । अर्थात् तेरहमे, चौदहमे गुणस्थानों में तीर्थकरत्व प्रकृति का उदय है । तीर्थकरत्व के साथ अविनाभाव रखने वाली अन्य प्रशस्तप्रकृतियों का
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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