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श्लोक - वार्तिक
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥
मनोयोग, वचन योग और काय योग की कुटिलता तथा अन्यथा प्रतिपादन करना स्वरूप विसंवादन ऐसे-ऐसे कारण अशुभ नाम कर्म के आस्रव हैं ।
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कायवाङ्मनसां कौटिल्येन वृत्तिर्योगवक्रता, विसंवादनमन्यथा प्रवर्तनं । योगवक्रतैवेति चेत्, सत्यं; किंत्वात्मांतरेऽपि तद्भावप्रयोजकत्वात्पृथग् वचनं विसंवादनस्य । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः तेन तज्जातीयाशेषपरिणामपरिग्रहः । कुतोऽशुभस्य नाम्नोऽयमास्त्रव इत्याह
काय, वचन, मनों की कुटिलपने करके वृत्ति होना योगवक्रता है यथार्थ मार्ग से दूसरे ही प्रकारों करके दूसरों को प्रवर्तावना विसंवादन है । यदि यहाँ कोई यों आक्षेप करे कि यह विसंवादन तो योगवक्रता ही है क्योंकि दूसरों को धोखा देने में स्व के योगों की कुटिलता हो ही जाती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यों तुम्हारा कहना सत्य है । जब तक मैं उत्तर नहीं देता हूँ तब तक सत्य सारिखा जचता है । उत्तर करने पर आक्षेप की धज्जियां उड़ जायंगी, बात यह है कि विसंवादन में अवश्य योगवक्रता होती है किन्तु दूसरे जीवों में भी उस कौटिल्यभाव का प्रयोजक होने से विसंवादन का पृथक् निरूपण किया गया है। कोई दूसरा जीव स्वर्ग मोक्ष की साधक क्रियाओं में प्रवर्त रहा है । उसको अपनी विपरीत कायिक, वाचिक, मानसिक चेष्टाओं से धोखा देता है कि तुम इस प्रकार मत करो यों मेरे कथनानुसार करो। ऐसी कुटिलतया प्रवृत्ति कराना विसंवादन है। अपनी आत्मा में ही कुटिलता योगवक्रता कही जाती है और दूसरों में करायी गयी कुटिलता विसंवादन है। यह इन दोनों का भेद है। इस सूत्र में पड़ा हुआ च शब्द तो नहीं कहे जा चुके कारणों का समुच्चय करने के लिये है तिस च शब्द करके उन योगवक्रता या विसंवादन को जाति वाले अशेषपरिणामों का परिग्रह हो जाता है अर्थात् च शब्द करके पिशुनता, डमाडोल स्वभाव, झूठे बांट, नाप बनाना, कृत्रिम सोना, मणि, रत्न बनाना, झूठी गवाही देना, यंत्र, पीजरा आदि का निर्माण करना, ईंट पकाना, कोयला बनाने का व्यापार करना, आदि का समुच्चय हो जाता है । यहाँ कोई तर्क करता है कि किस युक्ति से यह अशुभ नाम कर्म का आस्रव होरहा समझ लिमा जाय इस प्रकार तर्क उपस्थित होने पर ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर वार्तिक को कहते हैं ।
नाम्नोऽशुभस्य हेतुः स्याद्योगानां वक्रता तथा । विसंवादनमन्यस्य संक्लेशादात्मभेदतः ॥ १ ॥
अन्य जीव को संक्लेश उपजाने से और अपने में संक्लेश होने से भेद को प्राप्त हो रहे ये योगों की वक्रता तथा विसंवादन तो अशुभ नाम कर्म के हेतु हो सकते हैं। संक्लेश हो जाने से पाप कर्म का बंध हो जाना साधा जा चुका है।
अशुभ नाम कर्म का आस्रव कहा जा चुका है। अब शुभ नाम कर्म का आस्रव क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार भगवान् अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥