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छठा-अध्याय
५२३ तन्निःशीलव्रतत्वस्य न बाधकमिदं विदुः ।
स्यादशेषायुषां हेतुभावसिद्धः कुतश्चन ॥४॥ कोई-कोई पण्डित इस सूत्र का यों व्याख्यान कर रहे हैं कि यह सूत्र पहिले कहे गये सभी आयुओं के आस्रव प्रतिपादक सूत्रों का अपवाद करने वाला है। क्योंकि सम्यक्त्व के होते सन्ते अन्य नरक आयु, तिर्यक आयु, मनुष्य आयु के कारणों के विफल हो जाने की प्रसिद्धि है । इसके उत्तर में इतर विद्वान् कहते हैं कि वह केचित् का कहना ठीक नहीं है क्यों कि जिनका सम्यक्त्व भला च्युत नहीं होता है ऐसे देव नारकी जीव मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । इस कारण यह सूत्र उस मनुष्यायु के आस्रव का बाधक नहीं है । देवों के मनुष्य आयुके बंध की व्युच्छित्ति चौथे गुणस्थान में होती है । जब कि मनुष्यतिथंचों के मनुष्य आयु की बंध व्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान में हो जाती है । तिस कारण “निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषां" सूत्र का यह बाधक नहीं है। यों इतर पंडित कह रहे हैं क्यों कि शीलवत रहितपन को किसी न किसी प्रकार से सम्पूर्ण आयुओं के हेतु हो जाने की सिद्धि हो चुकी है ।
पृथक्सूत्रस्य निर्देशाद्ध तुवैमानिकायुषः ।
सम्यक्त्वमिति विज्ञेयं संयमासंयमादिवत् ॥५॥ इस सूत्र का पृथक् निरूपण करने से सम्यक्त्व वैमानिक देवों की आयु का हेतु है। यह समझ लेना चाहिये जैसे कि संयमासंयम आदिक वैमानिक देवों की आयु का आस्रव कराते हैं । यहाँ आदि पद से सराग संयम का ग्रहण है।
सम्यग्दृष्टेरनंतानुबंधिक्रोधाद्यभावतः। जीवेश्वजीवता श्रद्धापायान्मिथ्यात्वहानितः ॥६॥ हिंसायास्तत्स्वभावाया निवृत्तः शुद्धिवृत्तितः। प्रकृष्टस्यायुषो देवस्यास्रवो न विरुध्यते ॥७॥
सम्यग्दृष्टि जीव के अनन्तानुबंधी क्रोध, मान आदि के कषायों का उदय रूप से अभाव है तथा मिथ्यात्व कर्म के उदय की हानि हो जाने से जीवों में अजीवपन या तत्त्वों में अतत्त्वपन की श्रद्धा का विनाश हो गया है। अतः उस मिथ्याश्रद्धा की टेव अनुसार होने वाली हिंसा की निवृत्ति हो जाने से आत्मा की वृत्ति विशुद्ध हो गयी है। विशुद्ध वृत्ति अनुसार सभी आयुओं में प्रकृष्ट हो रही देव संबंधी आयु का आस्रव हो जाना विरुद्ध नहीं पड़ता है। यों युक्तिपूर्वक सूत्रार्थ समझा दिया है।
___ आयुः कर्म के अनंतर नामकर्म का निर्देश है। शुभ और अशुभ यों नामकर्म दो प्रकार का है। उनमें प्रथम अशुभ नामकर्म के आस्रव की प्रतिपत्ति कराने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं।