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श्लोक-वार्तिक
का आस्रव नहीं होगा । यही अतिप्रसंग है कि अन्यथा नरक आयु, तिर्यग् आयु का कारण भी देवायु का आस्रव हेतु बन बैठेगा जो कि इष्ट नहीं है । कोई पूछता है कि क्या इतना ही देव संबंधी आयु का आस्रव हेतु है ? अथवा क्या अन्य भी कोई देवायु का आस्रावक है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
सम्यक्त्वं च ॥२१॥
तत्त्वार्थश्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शन भी देव संबंधी आयु का आस्रव है । अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः पृथक्करणात्सिद्धेः । किमर्थश्चशब्द इति चेदुच्यते
इस सूत्र में सम्यक देव आयु का आस्रव है यों विशेषता सहित सामान्यरूप से यद्यपि कथन किया गया है तो भी सौधर्म आदि वैमानिक संबंधी आयु के आस्रव की विशेषरूप से ज्ञप्ति हो जाती है । सूत्र का पृथक निरूपण करने से उक्त मंतव्य की सिद्धि हो जाती है क्योंकि यदि सम्यक्त्व को सामान्य रूप से ही देव आयु का आस्रव बखानना इष्ट होता तो सूत्र का पृथक् कहना व्यर्थ पड़ता पहिले के "सरासंयम आदि" सूत्रों में ही सम्यक्त्व को कह दिया जाता । अतः सिद्ध है कि पूर्व सूत्र करके सामान्यरूप से देव आयु के आस्रव का निरूपण किया गया है और इस सूत्र करके वैमानिक देवों की आयु का आस्रव कहा गया है। सराग संयम और संयमासंयम तो सम्यक्त्व के बिना होते ही नहीं हैं अतः सम्यक्त्व, 'सरागसंयम और संयमासंयम ये तीन तो वैमानिक देवों की आयु के आस्रव हैं तथा अकामनिर्जरा और बालतप ये दो तो भवनत्रिक या वैमानिक इन सभी चतुर्णिकाय देवों की आयु के आस्रव हैं । यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि सूत्र में च शब्द कहने का क्या प्रयोजन है ? यो प्रश्न करने पर तो ग्रन्थकार द्वारा यह वक्ष्यमाण उत्तर कहा जाता है ।
सम्यक्त्वं चेति तद्धेतु समुच्चयवचोबलात् ।
तस्यैकस्यापि देवायुःकारणत्वविनिश्चयः ॥ १ ॥
“सम्यक्त्वं च" इस सूत्र में उस देव आयु के हेतुओं का समुच्चय करने वाले वचन के बल से उस एक सम्यक्त्व को भी देव आयु के कारणपन का विशेषतया निश्चय हो जाता है। अर्थात् च शब्द करके सरागसंयम आदि का समुच्चय है। किंतु अकेला भी सम्यक्त्व देव सम्बन्धी आयुः का आस्रावक है । बात यह है कि कर्म भूमि के मनुष्य या तिर्यञ्च जीवों के सम्यक्त्व होगा वह वैमानिक देवों में ही उपजावेगा हां परभव सम्बन्धी मनुष्य आयु या तिर्यश्च आयु को बांध चुके कर्म भूमिस्थ मनुष्य तिर्यञ्चों का सम्यग्दर्शन भोगभूमि में घर देवेगा इनके अणुव्रत या महाव्रत नहीं हो सकते हैं। हां देवों या नारकियों का सम्यक्त्व तो कर्मभूमि के मनुष्यों में उत्पादक समझा जाय ।
सर्वापवादकं सूत्र केचिद्वयाचक्षते सति । सम्यक्त्वे न्यायुषां हेतोर्विफलस्य प्रसिद्धितः ॥२॥ तन्नाप्रच्युतसम्यक्त्वा जायंते देवनारकाः । मनुष्येष्विति नैवेदं तदुबाधकमितीतरे ॥ ३ ॥