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________________ छठा-अध्याय ५२१ तिस कारण यथायोग्य संभव रहा निःशीलव्रतपना सभी आयुओं का आस्रव हेतु हो जाता है। कोई कुतर्क के लिये स्थान नहीं रहता है। अब तक नरकआयु, तिर्यग् आयु, मनुष्यआयु इन तीन आयुष्य कर्मों के आस्रव की विधि कही जा चुकी है । अब चौथी देव आयुका आस्रव हेतु क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर भगवान् सूत्रकार अग्रिम सूत्रको कहते हैं। सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥ संसार के कारणों की निवृत्ति प्रति उद्यत होरहा है किन्तु अभीतक कषाय जिसके क्षीण नहीं हुये हैं वह पुरुष सराग कहा जाता है । प्राणी और इन्द्रियों में अशुभ प्रकृति का त्याग संयम है । सराग पुरुष का संयम सरागसंयम कहा जाता है । छठे गुणस्थान से प्रारंभ कर दशमे तक सराग संयमस्वरूप महाव्रत है किन्तु देव आयु का आस्रव तो निरतिशय अप्रमत्त सातवें गुणस्थान तक ही माना गया है। पांचवें गुणस्थान में संभव रहा संयमासंयम का अर्थ श्रावकों का व्रत है। अकामनिर्जरा का तात्पर्य यों है कि कारागृह या किसी बंधन विशेष में पडा हआ जीव पराधीन होरहा यद्यपि दास चाहता है तथापि भूक रोके रहना, प्यास का दुःख, घोटक ब्रह्मचर्य धारण, भूमिशयन, मलधारण, संताप प्राप्ति, भोगनिरोध इनको सह रहा जो थोड़ी सी कर्मों की निर्जरा कर रहा है वह अकाम निर्जरा है। यथार्थ प्रतिपत्ति नहीं होने के कारण अज्ञानी मिथ्यादृष्टी जीव बाल कहे जाते हैं। इन बालों का अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप, एक हाथ उठाये रखना, तिरस्कार सहना, एकदंड या तीन दंड लिये फिरना, कान फटवाना आदि प्रचुर काय क्लेश वाला व्रत धारना बालतप कहा जाता है । सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप ये चारों क्रियायें चतुर्निकाय सम्बन्धी देवों की आयु के आस्रव हेतु हैं। व्याख्याताः सरागसंयमादयः। कीदृशानि सरागसंयमादीनि दैवमायुः प्रतिपादयंतीत्याह- . सराग संयम आदि का व्याख्यान किया जा चुका है। यहाँ कोई तर्क उठाता है कि किस प्रकार हो रहे संते ये सराग संयम आदिक उस देव संबंधी आयु के आस्रव को इस सूत्र द्वारा प्रतिपादन कर रहे हैं ? बताओ ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वार्तिक को कहते हैं । तस्यैकस्यापि देवस्यायुषः संप्रतिपत्तये । धर्म्यध्यानान्वितत्वेन नान्यथातिप्रसंगतः॥१॥ उस एक भी देव सम्बन्धी आयु के आस्रव की समीचीन प्रतिपत्ति कराने के लिए सूत्रकार द्वारा यह सूत्र रचा गया है । धर्म्य ध्यान से अन्वितपने करके सराग संयम आदिक उस देव आयु के आस्रव हैं अन्यथा नहीं क्योंकि अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् चौथे से सातवें गुणस्थान तक पाये जा रहे मुख्य धम्यध्यान और मिथ्यादृष्टियों के भी पाये जारह परोपकार, दयाभाव, अनशन, सद्धमश्रवण क्लेश, धर्मबुद्धि पूर्वक कायक्लेश, रसत्याग, उदासीनता आदि व्यावहारिक धर्म्यध्यान युक्त सरागसंयमादिक तो देव आयु का आस्रव करायेंगे, हां रौद्र या आर्तध्यान से युक्त हो रहे बालतप आदि से देवायु ण, असं
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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