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श्लोक-वार्तिक इति चेन्न, अतिक्रांतापेक्षत्वात् । पृथक्करणात् सिद्ध आनर्थक्यमिति चेन्न, भोगभूमिजार्थत्वात् । तेन भोगभूमिजानां निःशीलवतत्वं देवायुषः आस्रवः सिद्धो भवति । कुत एतदित्याह
___ इस सूत्र में पढ़ा गया च शब्द तो अधिकार प्राप्त हो रहे अल्पारंभपरिग्रहत्व का समुच्चय करने के लिये उपात्त किया गया है। अल्पारंभ परिग्रह सहितपना मनुष्य आयु का आस्रव है। अथवा शील व्रतों से रहितपना भी मनुष्य आयु का आस्रावक है। तथा इस सूत्र में 'सर्वेषां' इस पद का ग्रहण करना तो सम्पूर्ण चारों आयुओं के आस्रव की प्रतिपत्ति कराने के लिये है। यहाँ कोई विनीत शिष्य पूछता है कि सभी कह देने से तो निःशीलव्रतपने से देवायु के भी आस्रव हो जाने का प्रसंग आजायेगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि सूत्रकार ने अभीतक देव आयु का आस्रव कहा ही नहीं है । नरक आयु, तिर्यक् आयु और मनुष्य आयु इन तीन आयुओं का सूत्रों द्वारा निरूपण हो चुका है । अतः अभी तक अतिक्रान्त हो चुकी तीन आयुओं की अपेक्षा सर्वेषां पद कहा गया है । ऐसी दशा में देवायु का ग्रहण नहीं हो सकता है । पुनः कोई कटाक्ष करता है कि इस सूत्र का पृथक् निरूपण करदेने से ही अतिक्रांत हो चुकी तीन आयुओं की अपेक्षा यह सूत्र सिद्ध हो जायगा । पुनः सर्वेषां पद का ग्रहण व्यर्थ है। आचार्य कहते हैं यह तो नहीं कहना क्योंकि सर्वेषां पद से चारों आयुओं का ग्रहण है । भोगभूमियों में उपजे मनुष्य और तिर्यचों के लिये देव आयु का आस्रव होना यह सूत्र समझा रहा है। तिस कारण यह सिद्ध हो जाता है कि भोगभूमि में उपजे हुये जीवों का शील व्रत रहितपना देवसम्बन्धी आयु का आस्रव हेतु है । भोगभूमियाँ जीव मरकर भवनत्रिक या सौधर्म, ईशान स्वर्गों में जन्म लेते हैं। कोई तर्की यहाँ आक्षेप करता है कि राजाशा के समान सूत्रकार के कथनमात्र से उक्त सूत्र का रहस्य जान लिया जाय ? या किसी युक्ति से सिद्धान्त को पुष्ट किया जाता है ? बताओ ? यदि कोई युक्ति है तो किस युक्ति से यह सूत्रोक्त मंतव्य सिद्ध किया जाता है ? प्रमाण संप्लववादियों के यहाँ संवादीज्ञान प्रमाण माना जाता है। अतः आगमाश्रित विषय में युक्ति दे देने पर शोभनीय प्रामाण्य आजाता है । यों कटाक्ष प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कहते हैं।
निःशीलब्रतत्वं च सर्वेषामायुषामिह ।
तत्र सर्वस्य संभूतेानस्यासुभृतां श्रितौ ॥१॥ इस सूत्र में कहा गया शीलव्रतों से रहितपना तो (पक्ष ) सभी चारों आयुओं का आस्रव हेतु है ( साध्यदल ) क्यों कि जीवों के उस शील व्रतरहितपने में आस्रव करने पर सभी आर्त, रौद्र, धर्म्य तीनों ध्यानों की भले प्रकार उत्पत्ति हो जाती है । ( हेतु ) अर्थात् जैसे रोग रहितपन से मनुष्य कैसी भी भली बुरी टेवों में पड़ जाता है उसी प्रकार शीलव्रतरहितपना भी बहु आरंभ परिग्रह और मायाचार तथा अल्पारंभपरिग्रह एवं जलराजितुल्य रोष, सानुकंपहृदयता आदि से समन्वित हो रहा सन्ता चारों आयुओं का आस्रावक है । इस दशा में यथा योग्य तीनों ध्यानों में से कोई भी एक या दो अथवा शुभ, अशुभ से मिला हुआ ध्यान संभव जाता है। जो कि विशुद्धि या संक्लेश का अंग हो रहा तीन पुण्य आयुओं और एक पापस्वरूप नरक आयुः का आस्रव है।
ततो यथासंभवं सर्वस्यायुषो भवत्यास्रवः ॥