SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अध्याय ५२५ उस योगवक्रता से विपरीत अर्थात् काय, वचन, मनों का ऋजुकर्म तथा विसंवादन से विपरीत अविसंवादन ये शुभ नाम कर्म के आस्रव हैं। पूर्व सूत्र के च शब्द की अनुवृत्ति अनुसार उन समुच्चितों के विपरीत हो रहे साधर्मियों का दर्शन, संसारभीरुता, प्रमादवर्जन आदि का भी समुच्चय कर लिया है। ऋजुयोगताऽविसंवादनं च तद्विपरीतं । कुतस्तदखिलं शुभस्य नाम्नः कारणमित्याह - म े ं, वचन, काय के योगों का ऋजुपना और अविसंवादन ये दोनों उस पूर्व सूत्रोक्त से विपरीत हैं जो कि शुभ नाम कर्म के आस्रव हैं । यहाँ कोई आक्षेप करता है कि किस कारण से वे योगऋजुता आदि सम्पूर्ण इस शुभ नाम कर्म के आस्रव हैं ? बताओ । यो तर्क उपस्थित होने पर ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं । ततस्तद्विपरीतं यत्किचित्तत्कारणं विदुः । नाम्नः शुभस्य शुद्धात्म विशेषत्वावसायतः ॥१॥ तिस कारण उन योग्यवक्रता आदि से जो कुछ भी विपरीत क्रियायें हैं वे सब शुभ नामकर्म के कारण हैं । ऐसा पण्डित समझ रहे हैं ( प्रतिज्ञावाक्य ) क्योंकि आत्मा की विशेष शुद्धि का निर्णय हो रहा है। अर्थात् विशुद्धि के अंग होने से योगों की सरलता आदि से पुण्य स्वरूप शुभ नाम कर्म का आस्रव हो जाना न्याय प्राप्त है । कोई पूँछता है कि शुभनाम कर्म के आस्रव की विधि इतनी ही है ? अथवा कोई और विशेषता है ? ऐसी दशा में कहा जाता है कि जो अनंत अनुपम प्रभाव वाला, अचित्य विशेष विभूतियों का कारण, तीनों लोक में विजय करने वाला, यह तीर्थकर नाम कर्म है उसके आस्रव की विधि में विशेषता है । तिस पर जिज्ञासु पूंछता है कि यदि इस प्रकार है तो उस तीर्थकर नाम कर्म के आस्रवों को शीघ्रकहिये । इस कारण सूत्रकार तीर्थकर नाम कर्म के आस्रवों का प्ररूपण करने के लिये इस अगिले सूत्रो कहते हैं । दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकररणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहारिणर्मार्ग - प्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ भगवान् अर्हंत परमेष्ठी द्वारा उपदिष्ट किये गये मोक्षमार्ग में रुचि होना दर्शन विशुद्धि है। ज्ञान आदि अथवा ज्ञानवान् आदि में आदर करना विनयसम्पन्नता है । अहिंसा आदि व्रतों में और क्षमा आदि शीलों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेष्वनंतीचार है। ज्ञान भावना सदा उपयुक्त बने रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। संसार के दुःखों से नित्य भयभीत रहना संवेग है । दूसरों को प्रीति करने वाले स्व का यथाशक्ति त्याग करना दान है । शक्ति को नहीं छिपाकर मोक्षमार्ग के अविरोधी
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy