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छठा अध्याय
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मोहनीय कर्म के आस्रावक हेतुओं का निरूपण हो चुका। अब उसके पीछे कहे गये आयुष्य कर्म के आस्रव का हेतु कथन करने योग्य है । उनमें आदि में पड़े हुये नरकआयु 'दुर्जनं प्रथमं सत्कुर्यात्, के आस्रव कारणों का प्रदर्शन करने के लिये यह अगिला सूत्र कहा जाता है ।
बहू,वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥१५॥
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बहुत सा प्राणियों के पीड़ा हेतु होरहा व्यापार स्वरूप आरंभ करना और बहुत सा परिग्रह इकट्ठा करना ये नरक आयु के आस्रव हैं । अर्थात् किसी-किसी जीव का बहुत आरंभ से सहितपना और बहुत परिग्रह से सहितपना नरक सम्बन्धी आयु का आस्रव हेतु है । यद्यपि आयुः कर्म का आस्रव सदा नहीं होता रहता है । त्रिभाग में होरहे आठ अपकर्ष कालो में या अंतिम असंक्षेपाद्धा में आयु कर्म का आस्रव होता है तथापि जब कभी बन्ध होगा तभी उसके आस्रावक हेतुओं के अनुसार ही होगा यह सिद्धान्त कथन करना उपयोगी पड़ता है ।
संख्यावैपुल्यवाचिनो बहुशब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । आरंभो हैंस्रं कर्म, ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः, बह्वारंभः परिग्रहो यस्य स तथा तस्य भावस्तत्त्वं, तन्नारकस्यायुषः आस्रवः प्रत्येयः, एतदेव सोपपत्तिकमाह -
संख्या और विपुलता इन दोनों भी अर्थों के वाचक होरहे बहुशब्द का यहाँ सूत्र में ग्रहण है । क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। बहुत संख्या वाला आरंभ या परिग्रह अथवा प्रचुर आरंभ या परिग्रह दोनों एक सारिखे संक्लेश परिणाम स्वरूप हैं। जहां कहीं एक शब्द के दो विरोधी अर्थ आपड़ते हैं वहां प्रकरण अनुसार एक ही अर्थ को पकड़ा जाता है किन्तु यहां दोनों अर्थों का ग्रहण संभव जाता है । हिंसा करने वाले की देव रखने वाले जीवों का कर्म आरंभ कहा जाता है । ये क्षेत्र, धन, धान्य आदिक मेरे हैं। इस प्रकार संकल्प करना परिग्रह है । बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह जिस जीव के हैं वह जीव तिस प्रकार बह्वारंभपरिग्रह है । उसका भाव बहारंभ परिग्रहत्व है । यों द्वन्द्वगर्भित बहुब्रीहि समास कर पुनः तद्धित का त्व प्रत्यय करते हुये उद्देश्य पद को साथ दिया है । वह बहुत आरंभ परिग्रहों से सहितपना नरक सम्बन्धी आयुः का आस्रव होरहा विश्वास कर लेने योग्य है। इस ही बात को उपपत्तियों से सहित साधते हुये ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं ।
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नरकस्यायुषोऽभीष्टं बह्वारंभत्वमासूवः । भूयः परिग्रहत्वं च रौद्रध्यानातिशायि यत् ॥१॥ निंद्य धाम नृणां तावत्पापाधाननिबन्धनं । सिद्ध' चाण्डालकादीनां धेनुघातविधायिनां ॥२॥
बहुत आरम्भ से सहितपना और पुष्कल परिग्रह से मूर्छितपना नरक आयु के आस्रवष्ट किये गये हैं ( प्रतिज्ञा ) जो-जो अतिशय सहित रुद्रध्यान के धारने वाले निंदनीय स्थान हैं वे वे जीवों के पाप का आधान कराने के कारण होरहे तो प्रसिद्ध ही हैं। जैसे कि ब्याई हुई गायों के घात को करने